RS Aggarwal Solutions Class 10 (2020-2021 Edition)

RS Aggarwal Solutions Class 10 (2020-2021 Edition)

RS Aggarwal Class 10 Solutions 2020 Edition for 2021 Examinations

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RS Aggarwal Class 10 Solutions

RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 1 Real Numbers

RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 2 Polynomials

RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 3 Linear Equations in Two Variables

RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 4 Triangles

RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 5 Trigonometric Ratios

RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 6 T-Ratios of Some Particular Angles

RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 7 Trigonometric Ratios of Complementary Angles

RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 8 Trigonometric Identities

RS Aggarwal Solutions Class 10 RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 9 Mean, Median, Mode of Grouped Data, Cumulative Frequency Graph and O give

RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 10 Quadratic Equations

RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 11 Arithmetic Progressions

RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 12 Circles

RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 13 Constructions

RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 14 Height and Distance

RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 15 Probability

RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 16 Co-ordinate Geometry

RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 17 Perimeter and Areas of Plane Figures

RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 18 Areas of Circle, Sector and Segment

RS Aggarwal Solutions Class 10 Chapter 19 Volume and Surface Areas of Solids

अनयोक्त्यः Summary Notes Class 10 Sanskrit Chapter 12

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Class 10 Sanskrit Chapter 12 अनयोक्त्यः Summary Notes

अन्योक्तयः पाठपरिचयः
अन्योक्ति अर्थात किसी की प्रशंसा अथवा निन्दा अप्रत्यक्ष रूप से अथवा किसी बहाने से करना। जब किसी प्रतीक या माध्यम से किसी के गुण की प्रशंसा या दोष की निन्दा की जाती है, तब वह पाठकों के लिए अधिक ग्राह्य होती है। प्रस्तुत पाठ में ऐसा ही सात अन्योक्तियों का सङ्कलन है जिनमें राजहंस, कोकिल, मेघ, मालाकार, सरोवर तथा चातक के माध्यम से मानव को सवृत्तियों एवं सत्कर्मों के प्रति प्रवृत्त होने का संदेश दिया गया है।

अनयोक्त्यः Word Meanings Translation in Hindi

1. एकेन राजहंसेन या शोभा सरसो भवेत्।
न सा बकसहस्रेण परितस्तीरवासिना।।

शब्दार्थाः
सरसः – तालाब (नदी) की। भवेत् – हो/होती है। बकसहस्रेण – हज़ारों बगुलों से। परितः – चारों ओर। तीरवासिना – किनारे पर रहने वाले।

हिन्दी अनुवाद
एक राजहंस से जो शोभा तालाब (नदी) की होती है। वह शोभा किनारों पर चारों ओर रहने वाले हजारों बगुलों से नहीं होती है अर्थात् एक विद्वान से संसार अथवा समाज का कल्याण (शोभा) होता है परन्तु उसी समाज में रहने वाले हज़ारों मूों से उसकी शोभा नहीं होती है।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि = सन्धिं/सन्धिविच्छेद
सरसः + भवेत् = सरसो भवेत्
परितस्तीरवासिना = परितः + तीरवासिना

समासो-विग्रहो वा
पदानि – समासः/विग्रहः
राजहंसेन = राज्ञः हंसः, तेन
बकसहस्त्रेण = बकानाम् सहस्रम् तेन
तीरवासिना = तीरस्य वासी, तेन

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि = प्रकृतिः + प्रत्ययः
तीरवासिना = तीरवास + इन् (णिन्)

अव्यय-पद-चयनम् वाक्य प्रयोगश्च
अव्ययः = अर्थः = वाक्येषु प्रयोगः
परितः = चारों ओर = विद्यालय परितः पुष्पाणि सन्ति।
न = नहीं = ते कदापि असत्यं न वदन्ति।

विशेषण-विशेष्य चयनम्
विशेषण = विशेष्यः
एकेन = राजहंसेन
या = शोभा
तीरवासिना = बकसहस्रेण

विपर्ययपदानि
पदानि = विपर्ययाः
अनेकेन = एकेन
बकेन = राजहसेन
नद्याः = तडागस्य
या = सा
सर्वतः = परितः

2. भुक्ता मृणालपटली भवता निपीता
न्यम्बूनि यत्र नलिनानि निषेवितानि।
रे राजहंस! वद तस्य सरोवरस्य,
कृत्येन केन भवितासि कृतोपकारः॥

शब्दार्थाः
भुक्ता – खाया है। मृणालपाटली – कमल नाल के समूह। भवता – आपके द्वारा। निपीतानि – भलीभाँति पाए गए। अम्बूनि – जलों को/जल को। नलिनानि – कमल के फूलों को। निषेवितानि – अच्छी तरह से सेवन किया है। कृत्येन – काम से। भविता असि – चुकाओगे। कृतोपकारः – किए गए उपकार/किया गया उपकार।

हिन्दी अनुवाद
जहाँ आपने कमलनाल के समूह को खाया है, जल को अच्छी तरह से पीया है, कमल के फलों को सेवन किया हैं। हे राजहंस! बोलो, उस तालाब (सरोवर) का किस काम से किया गया उपकार चुकाओगे? अर्थात् जिस देश, जाति, धर्म और संस्कृति से हे मानव! तुम्हारा यह जीवन बना (निर्मित) हुआ है उसका बदला किस कार्य से चुका सकोगे? अतः इन सभी के ऋणी रहो और सम्मान करो।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि = सन्धि / सन्धिच्छेदं
निपीतान्यम्बूनि = निपीतानि + अम्बूनि
भवितासि = भविता + असि
कृतः + उपकारः = कृतोपकार:

समासो-विग्रहो वा
पदानि = समासः / विग्रहः
मृणाल पाटली = मृणालानाम् पाटली
निपीताम्बूनि = निपीतानि अम्बूनि
कृतोपकारः – कृतः उपकारः / कृतः च सः उपकार:

प्रकृति-प्रत्ययो: विभाजनम्
पदानि = प्रकृतिः + प्रत्ययः
भुक्ता = भुज् + क्त + टाप्
पाटली = पाटल + ङीप्
निपीतानि = नि + पा + क्त
कृत्येन = कृ + यत्
कृत = कृ + क्त
निषेवितानि = नि + सेव् + क्त

विशेषण-विशेष्य चयनम्
विशेषण = विशेष्यः
भुक्ता = मृणालपाटली
निपीतानि = अम्बूनि
केन = कृत्येन
निषेवितानि = नलिनानि
तस्य = सरोवरस्य

पर्यायपदानि
पदानि = पर्यायाः
जलानि = अम्बूनि
कमलानि = नलिनानि
तडागस्य = सरोवरस्य
हितम् = उपकारः

3. तोयैरल्पैरपि करुणया भीमभानौ निदाघे,
मालाकार! व्यरचि भवता या तरोरस्य पुष्टिः।
सा किं शक्या जनयितुमिह प्रावृषेण्येन वारां,
धारासारानपि विकिरता विश्वतो वारिदेन॥

शब्दार्थाः
भीमभानौ – सूर्य के अधिक तपने पर। निदाघे – गर्मी में। तोयैः – जलों से। भवता-आपके द्वारा। करुणया – दया से। तरो: – पेड़ की। व्यरचि – की है। वाराम् – जलों के। प्रावृषेण्येन – वर्षा काल के। विश्वतः – चारों ओर से। धारासारान् – धाराओं के प्रवाहों को। विकिरता – बिखेरते हुए। वारिदेन – बादल से। इह – इस संसार में। जनयितुम् – उत्पन्न करने में/के लिए। शक्या – समर्थ है।

हिन्दी अनुवाद
हे माली! सूर्य के तेज चमकने (तपने) पर गर्मी के समय में थोड़े जल से भी आपने दया के इस पेड़ की जो पुष्टि (बढ़ोतरी) की है। जलों को वर्षा काल के चारों ओर से धाराओं के प्रवाहों को भी बिखरते हुए (बरसाते हुए) बादल से इस संसार में वह (पेड़ की) पुष्टि क्या की जा सकती है? अर्थात् उत्तम और सम्पुष्ट जीवन जीने के लिए सुख अर्थात् सुखयुक्त वस्तुओं की अधिकता भी मानव जीवन को पूर्णतया सक्षम नहीं बनाती है। उसके लिए सुख अथवा दुःख भरे क्षणों की भी आवश्यकता होती है क्योंकि सुख और दुःख दोनों मानव जीवन के ही कंधे हैं और दोनों ही आवश्यक हैं।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि = सन्धि/सन्धिविच्छेद
तोमैरल्पैरपि = तोयैः + अल्पैः + अपि
व्यरचि = वि + अरचि
विश्वतः + वारिदेन = विश्वतो वारिदेन
किम् + शक्या = किं शक्या
तरोरस्य = तरोः + अस्य

समासो-विग्रहो वा
पदानि = समासः/विग्रहः
भीमभानौ = भीमः भानुः अस्मिन् सः, तस्मिन्
वारिदेन = वारि (वारीणि) ददाति इति. तेन
धारासारान् = धराणाम् आसारान्

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि = प्रकृतिः + प्रत्ययः
पुष्टिः = पुष् + क्तिन्
शक्या = शक् + यत् + टाप्
जनयितुम् = जन् + तुमुन्
विकिरता = वि + किर् + शतृ
विश्वतः = विश्व + तसिल्

अव्यय-पद-चयनम् वाक्य प्रयोगश्च
अव्ययः = अर्थः = वाक्येषु प्रयोगः
अपि = भी = त्वम् अपि मूषकः भव।
इह = यहाँ/इस संसार में = सः इह कदा आगतवान्? रामः इह सदैव पूज्यते।

विशेषण-विशेष्य चयनम्
विशेषण = विशेष्यः
अल्पैः = तोयैः
भीमभानौ = निदाघे
विकिरता = वारिदेन
या = पुष्टिः

पर्यायपदानि
पदानि = पर्यायाः
जलैः = तोयैः
ग्रीष्मे = निदाघे
बद्दलेन = वारिदेन
वृक्षस्य = तरोः

विपर्ययपदानि
पदानि = विपर्ययाः
अधिकैः = अल्पैः
निर्दयतया = करुणया
शीते = निदाघे
नष्टुम् = जनयितुम्
एकतः = विश्वतः

4. आपेदिरेऽम्बरपथं परितः पतङ्गाः,
भृङ्गा रसालमुकुलानि समाश्रयन्ते।
सङ्कोचमञ्चति सरस्त्वयि दीनदीनो,
मीनो नु हन्त कतमां गतिमभ्युपैतु॥

शब्दार्थाः
पतङ्गाः – पक्षी गण ने। अम्बरपथम् – आकाश मार्ग को। परितः – चारों ओर से। आपेदिर – प्राप्त कर लिए हैं। रसालमुकुलानि – आम की मंजरियों को। समाश्रयन्ते – आश्रय करते (सहारा लेते) हैं। सर: – सरोवर/तालाब। त्वयि – तुझमें। सङ्कोचम् – शुष्कता (सूखापन)। अञ्चति – आने पर। हन्त – अरे/हाय। दीनदीन: – बेसहारा। कतमां – किस। गतिम् – स्थिति (दशा) को। अभ्युपैतु – प्राप्त हो।

हिन्दी अनुवाद
पक्षियों ने चारों ओर से आकाशमार्ग को प्राप्त कर लिए हैं। भौरे आम की मंजरियों को आश्रय बना लिए हैं। सरोवर तुम्हारे संकुचित होने (सूखने) पर अरे निराश्रित (अनाथ) मछली निश्चय से किस गति को प्राप्त करेगी (करे)। अर्थात् अपने एकमात्र सहारे रूप मित्र के बुरे दिन आने पर भी मछली उसका साथ पक्षियों और भौंरों की तरह नहीं छोड़ती है, वह उसी के साथ अपने प्राण भी दे देती है। अतः वही वास्तव में मित्र मानी जाती है।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि = सन्धि / सन्धिविच्छेद
आपेदिरेऽम्बरपथम् = आपेदिरे + अम्बरपथम्
पतङ्गाः = पतम् + गाः
सङ्कोषम् = सम् + कोचम्
अञ्चति = अम् + चति
सरः + त्वयि = सरस्त्वयि
मीनः + नु = मीनो नु
कतमा गतिम् = कतमाम् + गतिम्
अभ्युपैति = अभि + उपैति

समासो-विग्रहो वा
पदानि = समासः / विग्रहः
अम्बरपथम् = अम्बरस्य पथम्
रसालमुकुलानि = रसालस्य मुकुलानि
दीनदीनः = दीनेषु हीनः / दीनेभ्यः दीनः

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि = प्रकृतिः + प्रत्ययः
अञ्चति = अञ्च् + शतृ
कतमाम् = कतम + टाप्
गतिम् = गम् + क्तिन्

विशेषण-विशेष्य चयनम्
विशेषण = विशेष्यः
अञ्चति = त्वयि
कतमाम् = गतिम्

अव्यय-पव-चयनम् वाक्य प्रयोगश्च
अव्ययः = अर्थः = वाक्येषु प्रयोगः
परितः = चारों ओर से = ग्रामम् परितः वृक्षाः सन्ति।
नु = निश्चय से = त्वं नु ममे बन्धु असि।
हन्त = अरे! = हन्त! इदं किम् अभवत्?

पर्यायपदानि
पदानि = पर्यायाः
आकाशमार्गम् = अम्बरपथम्
दक्षिणः = पतङ्गाः
तडागः = सरः
दशाम् = गतिम्
भ्रमराः = भृङ्गाः

5. एक एव खगो मानी वने वसति चातकः।
पिपासितो वा म्रियते याचते वा पुरन्दरम्॥

शब्दार्थाः
मानी – स्वाभिमानी। खगः – पक्षी। चातकः – चकोर (चकना)। पिपासितः – प्यासा। पुरन्दरम् – इन्द्र को (से)। म्रियते – मर जाता है। कुर्यात् – करे/कर सकता है। इदानीम् – इस संसार में। शिविना – शिवि के। विना – बिना।

हिन्दी अनुवाद
एक ही स्वाभिमानी पक्षी चातक (चकोर) वन में रहता है जो या तो प्यासा ही मर जाता है या फिर इन्द्र से (अपने लिए) वर्षा जल की याचना करता है। अर्थात् चकोर पक्षी की तरह संसार में स्वाभिमानी व्यक्ति भी अपने सम्मान व निर्धारित मर्यादा के साथ जीते हैं। नियमों से विरुद्ध अथवा अमर्यादित जीवन जीने की अपेक्षा वे मरना अधिक पसन्द करते हैं।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि – सन्धि / सन्धिविच्छेदं
एक एव = एक: + एव
खगो मानी = खगः + मानी
पिपासितो वा = पिपासितः + वा

समासो-विग्रहो वा
पदानि = समासः / विग्रहः
पुरन्दरम् = पुरम् दरति यः सः, तम्

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि = प्रकृतिः + प्रत्ययः
मानी = मान + इन् (णिनि)
पिपासितः = पिपासा + इतस्

अव्यय-पद-चयनम् वाक्य प्रयोगश्च
अव्ययः = अर्थः = वाक्येषु प्रयोगः
एव = ही = त्वम् एव बन्धुः मम।
वा = अथवा = नरः वा नारी वा भवेत् ईशकृपा आवश्यकी।

विपर्ययपदानि
पदानि = विपर्ययाः
नगरे = बने
जायते = म्रियते
सन्तुष्टः = पिपासितः
ददाति = याचते

6. आश्वास्य पर्वतकुलं तपनोष्णतप्त
मुद्दामदावविधुराणि च काननानि।
नानानदीनदशतानि च पूरयित्वा,
रिक्तोऽसि यजलद! सैव तवोत्तमा श्रीः॥

शब्दार्थाः
आश्वास्य – तृप्त करके। पर्वतकुलम् – पर्वतों के समूह को। तपनोष्णतप्तम् – सूर्य की गर्मी से तपे हुए को। उद्दामदावविधुराणि – ऊँचे वृक्षों से रहित। काननानि – वनों को। नानानदी – अनेक नदियों (को)। नदशतानि – सैकड़ों नदा (को)। पूरयित्वा – भर (पूर्ण) करके। रिक्तः असि – खाली हो। जलद! – हे बादल! उत्तमा – सबसे उत्तम। श्री: – शोभा। तव – तुम्हारी।

हिन्दी अनुवाद
सूर्य की गर्मी से तपे हुए पर्वतों के समूह को तृप्त करक और ऊँचे वृक्षों (लकड़ियों) से रहित वनों को (तृप्त करके) तथा अनेक नदियों और सैकड़ों नदों (नालों) को जल से पूर्ण (भर) करके भी हे बादल! यदि तुम खाली हो तो तुम्हारी वही उत्तम शोभा है अर्थात् श्रेष्ठ महादानी की तरह सबको अपने जलों से तृप्त करके भी तुम अपनी उदारता के कारण सदैव अतृप्त रहते हो यह तुम्हारी महान उदारता है।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि = सन्धिं / सन्धिविच्छेद
तपनोष्णतप्तम् = तपन + उष्णतप्तम्
रिक्तोऽसि = रिक्तो + असि / रिक्तः + असि
यज्जलद = यत् + जलद
सैव = सा + एव
तवोत्तमा = तव + उत्तमा

समासो-विग्रहो वा
पदानि = समासः / विग्रहः
पर्वतकुलम् = पर्वतानाम् कुलम्
तपनस्य उष्ण = तपनोष्ण
उष्णेन तप्तम् = उष्णतप्तम्
उद्दामानि दावानि च विधुराणि = उद्दाम दाव विधुराणि
नदशतानि = नदानाम् शतानि
जलद = जलम् ददाति इति
उत्तमा श्रीः = उत्तम श्रीः

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि = प्रकृतिः + प्रत्ययः
आश्वास्य = आ + श्वस् + ल्यप्
पूरयित्वा = पूरय् + क्त्वा
उत्तमा = उत्तम् + टाप्

अव्यय-पद-चयनम् वाक्य प्रयोगश्च
अव्ययः = अर्थः = वाक्येषु प्रयोगः
च = और = रामः लक्ष्मणः च वनम् अगच्छताम्।
यत् = कि = रामः अकथयत् यत् त्वामि गच्छ।
एव = ही = हे प्रभो! त्वम् एव मम बन्धुः असि।

विशेषण-विशेष्य-चयनम् विशेषण = विशेष्यः
विशेषण = विशेष्यः
तपनोष्णतप्तम् = पर्वतकुलम्
उद्दामदानविधुराणि = काननानि
उत्तमा = श्रीः

पर्यायपदानि
पदानि = पर्यायाः
बद्दल = जलद
शोभा = श्री:
सरिता = नदी
वनानि = काननानि
सूर्य = तपन

7. रे रे चातक! सावधानमनसा मित्र क्षणं श्रूयता-
मम्भोदा बहवो हि सन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः।
केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा,
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः॥

शब्दार्थाः
चातक! – चकोर!। क्षणम् – क्षण भर। गगने – आकाश में। अम्भोदा: – बादल। बहवः – बहुत से। एतादृशाः – ऐसे। केचित् – कुछ। धरिणीम् – धरती को। वृष्टिमिः – वर्षा से। आर्द्रयन्ति – भिगोते हैं। वृथा – बेकार में। पुरतः – आगे। दीनं वचः – दुःख भरी वाणी के। मा – मत। ब्रूहि – बोलो।

हिन्दी अनुवाद
हे मित्र चकोर पक्षी! सावधान मन से क्षणभर (तनिक) सुनो। आकाश में निश्चय से बहुत से बादल हैं, परन्तु सभी ऐसे (एक जैसे) नहीं हैं। उनमें से कुछ धरती को बारिशों से भिगो देते हैं और कुछ बेकार में गरजते (ही) हैं, तुम जिस-जिस को (सम्पन्न) देखते हो उस-उस के आगे अपने दुःख भरे वचनों को मत बोलो। अर्थात् सभी के आगे अपने दुःख को प्रकट करके हाथ फैलाना उचित नहीं होता। इससे अपना अपमान होता है और सभी उदार भी नहीं होते हैं। अतः सभी के आगे रोना और माँगना उचित नहीं है।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि – सन्धि / सन्धिविच्छेद
अम्भोदा बहवो = अम्भोदाः + बहवो
बहवो हि = बहवः + हि
सर्वे + अपि = सर्वेऽपि
नैतादृशाः = न + एतादृशाः
वृष्टिभिरार्द्रयन्ति = वृष्टिभिः + आर्द्रयन्ति
वसुधां गर्जन्ति = वसुधाम् + गर्जन्ति
केचिद् वृथा = केचित् + वृथा
पुरतः + मा = पुरतो मा

समासो-विग्रहो वा
पदानि = समासः / विग्रहः
सावधानमनसा = सावधानेन मनसा/सावधानम् मनः, तेन
अम्भोदाः = अम्भम् ददति ये ते
वसूनि दधाति या ताम् = वसुधाम्
दीनं वचः = दीनवचः

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि = प्रकृतिः + प्रत्ययः
वृष्टिभिः = वृष् + क्तिन्
पुरतः = पुर + तसिल्

अव्यय-पद-चयनम् वाक्य प्रयोगश्च
अव्ययः = अर्थ = वाक्येषु प्रयोगः
हि = निश्चय से = ते हि मम मित्राणि सन्ति।
अपि = भी = त्वम् अपि किञ्चित् पठ।
वृथा = बेकार में = दुष्टाः वृथा एव जलत्ति।
पुरतः = सामने (से) = मम पुरतः एव बालक: धावितवान्।
मा = मम = कक्षायां कोलाहलं मा कुरुत।

विपर्ययपदानि
पदानि = विपर्ययाः
अरि = मित्र
अल्प: / न्यूनः = बहवः
धरायाम् = गगने
शुष्कतया = वृष्टिभिः
सार्थकः = वृथा
पृष्ठतः = पुरतः
अदीनम् = दीनम्

पर्यायपदानि
पदानि = पर्यायाः
सखे = मित्र
अधिक: = बहवः
आकाशे = गगने
वर्षाभिः = वृष्टिभिः
धराम् = वसुधाम्
अग्रे = पुरतः

विशेषण-विशेष्यः चयनम्
विशेषण = विशेष्यः
बहवः = अम्भोदाः
दीनम् = वचः

प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुह्रद् Summary Notes Class 10 Sanskrit Chapter 11

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Class 10 Sanskrit Chapter 11 प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुह्रद् Summary Notes

प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद् पाठपरिचयः
प्रस्तुत नाट्यांश महाकवि विशाखदत्त द्वारा रचित ‘मुद्राराक्षसम्’ नामक नाटक के प्रथम अङ्क से उद्धृत किया गया है। नन्दवंश का विनाश करने के बाद उसके हितैषियों को खोज-खोजकर पकड़वाने के क्रम में चाणक्य, अमात्य राक्षस एवं उसके कुटुम्बियों की जानकारी प्राप्त करने के लिए चन्दनदास से वार्तालाप करता है, किन्तु चाणक्य को अमात्य राक्षस के विषय में कोई सुराग न देता हुआ चन्दनदास अपनी मित्रता पर दृढ़ रहता है। उसके मैत्री भाव से प्रसन्न होता हुआ भी चाणक्य जब उसे राजदण्ड का भय दिखाता है, तब चन्दनदास राजदण्ड भोगने के लिए भी सहर्ष प्रस्तुत हो जाता है। इस प्रकार अपने सुहृद् के लिए प्राणों का भी उत्सर्ग करने के लिए तत्पर चन्दनदास अपनी सृहद्-निष्ठा का एक ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करता है।

प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुह्रद् Summary

पाठसारः
प्रस्तुत नाट्यांश महाकवि विशाखदत्त द्वारा विरचित ‘मुद्राराक्षसम्’ नामक नाटक के प्रथम अङ्क से उद्धृत किया गया है। मुद्राराक्षस में चाणक्य का राजनीतिक-कौशल, राष्ट्रसञ्चालन के लिए कूटनीति का ज्ञान है। नन्दसाम्राज्य को समाप्त कर नन्दवंश के विनाश के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा के रूप में स्थापित कर चाणक्य नन्द के मन्त्री अमात्य राक्षस को, उसके कुटुम्बियों को और हितैषियों को खोज-खोजकर पकड़वाते हैं।
प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुह्रद् Summary Notes Class 10 Sanskrit Chapter 11
चाणक्य को सूचना मिलती है कि अमात्य राक्षस के मित्र मणिकार श्रेष्ठी चन्दनदास के घर में अमात्य राक्षस के कुछ कुटुम्बी छिपे हुए हैं। प्रस्तुत नाटक में चाणक्य और चन्दनदास का वार्तालाप है। चन्दनदास अपने मित्र राक्षस के विषय में चाणक्य को कुछ भी जानकारी नहीं देता। चाणक्य द्वारा मृत्युभय दिखाने पर भी चन्दनदास अपने मित्र और उसके परिवारजनों की सुरक्षा करता है। मित्र की रक्षा करते हुए राजदण्ड भी सहर्ष स्वीकार कर लेता है। अपने मित्र के लिए प्राणों को न्योछावर करने को तत्पर चन्दनदास अपनी मित्रता का एक ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत करता है। चन्दनदास के अपने मित्र के प्रति निष्ठा देखकर चाणक्य उसकी तुलना राजा शिवि से करते हैं। जिन्होंने शरण में आए एक कबूतर की रक्षा के लिए अपने शरीरांगों का बलिदान कर दिया था।

प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुह्रद् Word Meanings Translation in Hindi

1. चाणक्यः – वत्स! मणिकारश्रेष्ठिनं चन्दनदासमिदानीं द्रष्टुमिच्छामि।
शिष्यः – तथेति (निष्क्रम्य चन्दनदासेन सह प्रविश्य) इतः इतः श्रेष्ठिन्! (उभौ परिक्रामतः)
शिष्यः – (उपसृत्य) उपाध्याय! अयं श्रेष्ठी चन्दनदासः।
चन्दनदासः – जयत्वार्यः
चाणक्यः – श्रेष्ठिन्! स्वागतं ते। अपि प्रचीयन्ते संव्यवहाराणां वृद्धिलाभा:?
चन्दनदासः – (आत्मगतम्) अत्यादरः शङ्कनीयः। (प्रकाशम्) अथ किम्। आर्यस्य प्रसादेन अखण्डिता में वाणिज्या।
चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियमिच्छन्ति राजानः।
चन्दनदासः – आज्ञापयतु आर्यः, किं कियत् च अस्मज्जनादिष्यते इति।

शब्दार्थाः
वत्स – बेटा/प्रिय। मणिकारश्रेष्ठिनम् – मणियों का व्यापारी। तथा इति – वैसे ही हो। इतः इत: – इधर से-इधर से। प्रचीयन्ते – बढ़ रहे हैं। संव्यवहाराणाम् – व्यापारों के। वृद्धि लाभाः – बढ़ोत्तरी में लाभ। अत्यादर: – अधिक सम्मान। शङ्कनीयः – शंका के योग्य। अखण्डिता – अखंडित/परिपूर्ण। मे – मेरा। वाणिज्य – व्यापार। प्रीताभ्यः – प्रसन्न से। प्रतिप्रियम् – उपकार के बदले में किए गए उपकार। आज्ञापयतु – आज्ञा दें। कियत् – कितना। अस्मत् – मुझ (से)। जनात् – व्यक्ति से। इष्यते – चाहते हैं।

हिंदी अनुवाद
चाणक्य – बेटा (प्रिय)। जौहरी सेठ चन्दनदास को इस समय देखना (मिलना) चाहता हूँ।
शिष्य – ठीक है (वैसा ही हो) (निकलकर चन्दनदास के साथ प्रवेश करके) इधर-से-इधर से श्रेष्ठी (सेठ जी)! (दोनों घूमत है)
शिष्य – (पास जाकर) आचार्य जी! यह सेठ चन्दनदास है। चन्दनदास – आर्य की विजय हो
चाणक्य – सेठ! तुम्हारा स्वागत है। क्या व्यवहारों का (कारोबार में) लाभ बढ़ रहे हैं?
चन्दनदास – (मन-ही-मन में) अधिक सम्मान शंका के योग्य है। (प्रकट रूप से) और क्या। आर्य की कृपा से मेरा व्यापार अखण्डित है।
चाणक्य – अरे सेठ! प्रसन्न स्वभाव वालों (लोगों) से राजा लोग उपकार के बदले किए गए उपकार को चाहते हैं।
चन्दनदास – आर्य आज्ञा दें, क्या और कितना इस व्यक्ति से आशा करते हैं।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि – सन्धि / सन्धिविच्छेदं
चन्दनदासमिदानीम् = चन्दनदासम् + इदानीम्
द्रष्टुमिच्छामि = द्रष्टुम् + इच्छामि
तथेति = तथा + इति
जयत्वार्यः = जयतु + आर्य:
सु + आगतम् = स्वागतम्
अति + आदरः = अत्यादरः
प्रियमिच्छन्ति = प्रियम् + इच्छान्ति
अस्मज्जनादिष्यते = अस्मत् + जन + आदिष्यते

समासो-विग्रहो वा
पदानि = समासः/विग्रहः = समासनामानि
अखण्डिता = न खण्डिता – नञ् तत्पुरुष

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि = प्रकृतिः + प्रत्ययः
द्रष्टुम् = दृश् + तुमुन्
निष्क्रम्य – निस् + क्रम् + ल्यप्
प्रविश्य = प्र + विश् + ल्यप्
उपसृत्य = उप + स् + ल्यप्

कारकाः उपपदविभक्ति
चन्दनदासेन सह प्रविश्य कृत्वा वदति।
-अत्र सह कारणेन चन्दनदासेन शब्द तृतीयाः विभक्ति प्रयुक्ता।

अव्यय-पद-चयनम् वाक्य-प्रयोगश्च
अव्ययः = अर्थः – वाक्येषु प्रयोगः
तथा = वैसा – यथा राजा तथा प्रजा।
इति = ऐसा – इति विषये तस्याः जिज्ञासा प्रारब्धा।
अथ = आरम्भ – अथ श्री रामायण कथा।
इदानीम् = अब – इदानीम् अहम् पठामि।
प्रति = की तरफ़ – बालकाः क्रीडाक्षेत्रम् प्रति क्रीडनाय गच्छन्ति।

पर्यायपदानि
पदानि = पर्यायाः
वत्स = पुत्र
मणिकार = रत्नकारं
श्रेष्ठिनम् = वाणिज्यम्
निष्क्रम्य = बहि: गत्वा
उपसृत्य = समीपं गत्वा
परिक्रामतः = परिभ्रमणं कुरुतः
जयतु = जयं भवतु
स्वागतम् = अभिनन्दनम्
आत्मगतम् = मनसि
अत्यादरः = अत्यधिक आदरं
प्रकाशम् = प्रकट
प्रसादेन = कृपया
अखण्डिता = न खण्डिता
आर्य = श्रेष्ठ
कियत् = कति
प्रीताभ्यः = प्रसन्नः जनानां प्रति
प्रतिप्रियम् = उपकारस्य कृते कृतम् उपकारम्
वाणिज्या = व्यापारम्
शङ्कनीयः = सन्देहास्पदम्
प्रचीयन्ते – वृद्धि प्राप्नुवन्ति
संव्यवहाराणाम् = व्यापाराणाम्

विपर्ययपदानि
पदानि = विपर्ययाः
निष्क्रम्य = प्रविश्य
आत्मगतन् = प्रकाशम्
उपसृत्य = दूरं गत्वा
इदानीम् = तदानीम्
उपाध्यायः = गुरु:, अध्यापक:
श्रेष्ठी = निर्धनः

शङ्कनीयः – अशङ्कनीयः
आदरः = निरादरः
आर्यः = अनार्यः
वृद्धिः = क्षीणः
लाभः = हानि:
अखण्डिता = खण्डिता
आज्ञापयतु = अनाज्ञापयतु
आदिष्यते = अनादिष्यते
अत्यादरः = अनादरः
आर्यस्य = अनार्यस्य

2. चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! चन्द्रगुप्तराज्यमिदं न नन्दराज्यम्। नन्दस्यैव अर्थसम्बन्धः प्रीतिमुत्पादयति। चन्द्रगुप्तस्य
तु भवतामपरिक्लेश एव। चन्दनदासः – (सहर्षम्) आर्य! अनुगृहीतोऽस्मि।
चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! स चापरिक्लेशः कथमाविर्भवति इति ननु भवता प्रष्टव्यः स्मः।
चन्दनदासः – आज्ञापयतु आर्यः। चाणक्यः – राजनि अविरुद्धवृत्तिर्भव।
चन्दनदासः – आर्य! कः पुनरधन्यो राज्ञो विरुद्ध इति आर्येणावगम्यते?
चाणक्यः – भवानेव तावत् प्रथमम्।
चन्दनदासः – (कर्णी पिधाय) शान्तं पापम्, शान्तं पापम्। कीदृशस्तुणानामग्निना सह विरोधः?

शब्दार्थाः
श्रेष्ठिन्! – हे सेठ। अर्थसम्बन्धः – धन का सम्बन्धी प्रीतिम् – प्रेम को। उत्पादयति – उत्पन्न करता है। अपरिक्लेश: – दुःख का अभाव। अनुगृहीतः – आभारी। आविर्भवति – उत्पन्न होता है। भवता – आप से आपके द्वारा। प्रष्टव्यः – पूछने योग्य है। अविरुद्धवृत्तिः-विरुद्ध व्यवहार वाला नहीं। अधन्यः-अभागा। अवगम्यते-माना जाता है। पिधाय-बन्द करके/छूकर के। शान्तं पापम्-क्षमा करें। तृणानाम्-घासों का।

हिंदी अनुवाद
चाणक्य – अरे सेठ! यह चन्द्रगुप्त का राज्य है नन्द का राज्य नहीं। नन्द का राज्य ही धन से प्रेम रखता है।
चन्द्रगुप्त तो आपके सुख से ही (प्रेम रखता है)। चन्दनदास – (खुशी के साथ) आर्य! आभारी हूँ।
चाणक्य – हे सेठ! और वह दुःख का अभाव कैसे उत्पन्न होता है यही आपसे पूछने योग्य है। चन्दनदास – आर्य आज्ञा दीजिए।
चाणक्य — राजा में (के लिए) विरुद्ध व्यवहार वाला न होओ (बनो)। चन्दनदास – आर्य! फिर कौन अभागा राजा के विरुद्ध है ऐसा आर्य समझते हैं।
चाणक्य – सबसे पहले तो आप ही। चन्दनदास – (कानों को छूकर/बन्द करके) क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए। सूखी घासों का आग के साथ कैसा विरोध?

सन्धिः-विच्छेदो वा

पदानि = सन्धिं/सन्धिविच्छेद
प्रीतिमुत्पादयति = प्रोतिम् + उत्पादयति।
चन्द्रगुप्तराज्यमिदं = चन्द्रगुप्त + राज्यम् + इदम्
नन्दस्य + एव = नन्दस्यैव
अनुगृहीतोऽस्मि = अनुगृहीतः + अस्मि
चापरिक्लेशः = च + अपरिक्लेश:
कथमाविर्भवति = कथम् + अविर्भवति
अविरुद्धवृत्तिर्भव = अविरुद्धः + वृतिः + भव
पुनः + अधन्यः = पुनरधन्यो
आर्येणावगम्यते = आर्येण + अवगम्यते
भचानेव = भवान् + एव
कीदृशस्तृणानामग्निना = कीदृशः + तृणानाम् + अग्निना

नहीं
समासो-विग्रहो वा
पदानि – समासः / विग्रहः – समास नामानि
सहर्षम् = हर्षेण सहितम् – अव्ययीभाव समास

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि = प्रकृतिः + प्रत्ययः
शान्त = शम् + क्त
प्रष्टव्याः = प्रच्छ् + तव्यत्
वृत्तिः = वृञ् + क्तिन्
अवगम्यते = अव + गम् + ल्यप्
पिधाय = पि + धा + ल्यप्

कारकाः उपपदविभक्ति
तृणानाम् अग्निना सह विरोधः कीदृश:?
-अत्र सह कारणेन अग्निना पदं तृतीया वि. प्रयुक्ता।

अव्यय-पद-चयनम् वाक्य-प्रयोगश्च
अव्ययः – अर्थः – वाक्येषु प्रयोगः
इति – ऐसा – इति भवतौ प्रष्टव्याः स्मः।
ननु – निश्चितम् – इति ननु भवता प्रष्टव्याः स्मः।
न – नहीं – इदं चन्द्रगुप्तराज्यं न तु नन्दराज्यम्।
तु – तो – स: तु अवश्यमेव आगमिष्यति।

पर्यायपदानि
पदानि = पर्यायाः
अर्थसम्बन्धः = धनसम्बन्धः
अपरिक्लेशः = दुखानाम् अभाव:
परिक्लेशः = दुखम्
प्रष्टव्याः = प्रष्टुम् योग्याः
अवगम्यते = ज्ञायते
अविरुद्धवृत्तिः = अविरुद्ध स्वभावः
पिधाय = आच्छाद्य
कर्णो = श्रोत्राभ्याम्
आविर्भवति = उत्पन्नः भवति
अधन्यः = अभागा
प्रीतिः = प्रेम/मित्रता
उत्पादयति = उत्पन्नम् करोति

विपर्ययपदानि
पदानि = विपर्ययाः
अपरिक्लेशः = परिक्लेश:
अविरुद्ध प्रवृत्तिः = विरुद्ध प्रवृतिः
अधन्यः = धन्यः
प्रीति = बैर / शत्रुता
उत्पादयति = अनुत्पादयति
राजा = प्रजा
सहर्षम् = सदुखम्
अनुग्रहीतः = अकृतज्ञः
विरोधः = सहयोग:
प्रथमम् = द्वितीयम्
पुनः = एकवारम्
आज्ञापयतु = अनाज्ञापयतु
आर्य = अनार्य

3. चाणक्यः – अयमीदृशो विरोधः यत् त्वमद्यापि राजापथ्यकारिणोऽमात्यराक्षसस्य गृहजनं स्वगृहे रक्षसि।
चन्दनदासः – आर्य! अलीकमेतत्। केनाप्यनार्येण आर्याय निवेदितम्।
चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! अलमाशङ्कया। भीताः पूर्वराजपुरुषाः पौराणामिच्छतामपि गृहेषु गृहजनं निक्षिप्य देशान्तरं व्रजन्ति। ततस्तत्प्रच्छादनं दोषमुत्पावयति।
चन्दनदासः – एवं नु इवम्। तस्मिन् समये आसीदस्मद्गृहे अमात्यराक्षसस्य गृहजन इति।
चाणक्यः – पूर्वम् ‘अनृतम्’, इदानीम् “आसीत्” इति परस्परविरुद्धे वचने।
चन्दनदासः – आर्य! तस्मिन् समये आसीदस्मद्गृहे अमात्यराक्षसस्य गृहजन इति।

शब्दार्थाः
ईदृशः – ऐसा। राजापथ्यकारिणः – राजा का बुरा करने वाले। गृहजनम् – घर के व्यक्ति/परिवार के व्यक्ति को। अलीकम् – असत्य। एतत् – यह। अनार्येण – दुष्ट के द्वारा। श्रेष्ठिन् – हे सेठ। शङ्कनीय – शंका करने योग्य। पौराणाम् – नगरवासियों के। इच्छताम् अपि – चाहने से भी/इच्छा से भी। निक्षिप्य – रखकर। तत्प्रच्छादनम् – उसे छिपाने को। दोषम् – दोष को। पूर्वम् – पहले। अनृतम् – झूठ। गृहजन: – परिवार/पारिवारिक सदस्य।

हिंदी अनुवाद
चाणक्य – यह ऐसा विरोध है कि तुम आज भी राजा का बुरा करने वाले अमात्य राक्षस के परिवार को अपने घर में रखते हो।
चन्दनदास – हे आर्य! यह झूठ है। किसी दुष्ट ने आर्य को (गलत) कहा है।
चाणक्य – हे सेठ! आशंका (संदेह) मत करो। डरे हुए भूतपूर्व (पिछले/अपदस्थ) राजपुरुष पुर (नगर) वासियों की इच्छा से भी (उनके) घरों में परिवार जन को रखकर (छोड़कर) दूसरे स्थानों को चले जाते हैं। उससे उन्हें छिपाने का दोष पैदा होता है।
चन्दनदास – निश्चय से ऐसा ही है। उस समय हमारे घर में अमात्य राक्षस का परिवार था।
चाणक्य – पहले ‘झूठ’ अब “था” ये दोनों आपस में विरोधी वचन हैं।
चन्दनदास – आर्य! उस समय हमारे घर में अमात्य राक्षस का परिवार था।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि = सन्धि / सन्धिविच्छेदं
अयमीदृशो = अयम् + ईदृशः
त्वमद्यापि = त्वम् + अद्य + अपि
अलीकमेतत् = अलीकम् + एतत्
केनाप्यनार्येण = केन + अपि + अनार्येण
अलमाशङ्कया = अलम् + अशङ्कया
पौराणामिच्छतामपि = पौराणम् + इच्छताम् + अपि
देशान्तरं = देश + अन्तरम्
ततस्तत्प्रच्छादनं = ततः + तत् + प्रच्छादनम्
दोषमुत्पादयति = दोषम् + उत्पादयति
आसीदस्मदगृहे = आसीत् + अस्मत् + गृहे
अथ + इदानीम् = अथेदानीम्
तत् + प्रतिकारः = तत्प्रतिकार:
राजापथ्यकारिणोऽमात्यराक्षसस्य = राजा + अपथ्यकारिणो + अमात्यराक्षसस्य

समासो-विग्रहो वा
पदानि = समासः / विग्रहः = समासनामानि
गृहजनं = गृहस्य जनम् = तत्पुरुष समास
न ऋतम् = अनृतम् = नञ् तत्पुरुष समास

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि = प्रकृतिः + प्रत्ययः
निवेदितम् = नि + विद् + क्त
भीताः = भी + क्त
इच्छता – इष् + शतृ
निक्षिप्य = नि + क्षिप् + ल्यप्

कारकाः उपपद विभक्तयश्च
अलमाशङ्कया
-अत्र अलम् कारणेन शङ्कया शब्दे तृतीया वि. प्रयुक्ता।

अव्यय-पद-चयनम् वाक्य-प्रयोगश्च
अव्ययः – अर्थः – वाक्येषु प्रयोगः
यत् = जो – त्वम् यत् पश्यसि तत् एव वद।
यत् = कि – श्यामः अवदत् यत् सत्यम् वद।
इदानीम् = अब – इदानीम् सः अत्र आगमिष्यति।
इति – किसी के द्वारा बोले गए शब्दों को उसी प्रकार प्रयुक्त करने के लिए – पयः ददाति इति पयोदः।

पर्यायपदानि
पदानि = पर्यायाः
अनृतम् = अलीकम्, असत्यम्
इदानीम् = अधुना, सम्प्रति
विरोधः = असहमतिः, खण्डनम्
आर्येण = सज्जनेन
राजा = भूपतिः, नरपतिः
गृहजनं = गृहस्य जनम्
अपथ्यकारिणः = अकल्याणकारी
ततः = तत्पश्चात्
अमात्यः = मन्त्री
देशान्तर – अन्यदेशं प्रति
उत्पादयति = उत्पन्नं भवति
आर्याय = श्रेष्ठाय
निक्षिप्य = स्थापयित्वा
व्रजन्ति = गच्छन्ति
पौराणाम् = नगरवासिनाम्
प्रच्छादनम् = आच्छादनम्
असन्तम् = न निवसन्तम्

विपर्यायपदानि
पदानि = विपर्ययाः
अनृतम् = सत्यम्
आर्याय = अनार्याय
आर्येण = अनार्येण
दोषाः = गुणाः
राजा = प्रजाः
उत्पादयति = अनुत्पादयति
पूर्वम् = पश्चात्
विरुद्ध = अविरुद्ध
आसीत् = अस्ति
विरोधः = समर्थन:
निक्षिप्य = उत्थाय
भीताः = अभीताः
निवेदितम् = प्रार्थितम्
व्रजन्ति = तिष्ठन्ति

4. चाणक्यः – अथेदानी क्व गतः?
चन्दनदासः – न जानामि।
चाणक्यः – कथं न ज्ञायते नाम? भो श्रेष्ठिन्! शिरसि भयम्, अतिदूर तत्प्रतिकारः।
चन्दनदासः – आर्य! किं मे भयं दर्शयसि? सन्तमपि गेहे अमात्यराक्षसस्य गृहजनं न समर्पयामि, किं पुनरसन्तम्?
चाणक्यः – चन्दनदास! एष एव ते निश्चयः?
चन्दनदासः – बाढम्, एष एव मे निश्चयः।
चाणक्यः – (स्वागतम्) साधु! चन्दनदास साधु।

शब्दार्थाः
इदानीम् – इस समय। क्व – कहाँ। गतः – गया। अतिदूरम् – बहुत दूर। तत्प्रतिकारः – उसका समाधान। मे – मुझे। दर्शयसि – दिखाते हो। सन्तमपि – होने पर भी। गेहे – घर में। समर्पयामि – देता हूँ। असन्तम् – न होने पर। ते – तुम्हारा। बाढम् – ठीक है/हाँ। साधु – शाबाश।

हिंदी अनुवाद
चाणक्य – अब इस समय कहाँ गया है?
चन्दनदास – नहीं जानता हूँ।
चाणक्य – क्यों नहीं जानते हो? हे सेठ! सिर पर डर है, उसका समाधान बहुत दूर है।
चन्दनदास – आर्य! क्यों मुझे डर दिखाते हो? अमात्य राक्षस के परिवार के घर में होने पर भी नहीं समर्पित करता, फिर न होने पर तो बात ही क्या है?
चाणक्य – हे चन्दनदास! यही तुम्हारा निश्चय है?
चन्दनदास – हाँ, यही मेरा निश्चय है।
चाणक्य – (अपने मन में) शाबाश! चन्दनदास शाबाश।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि = सन्धि/सन्धिविच्छेद
अथेदानीम् = अथ + इदानीम्
पुनरसन्तम् – पुनः + असन्तम्
तत् + प्रतिकारः = तत्प्रतिकारः
निः + चयः – निश्चयः

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि = प्रकृतिः + प्रत्ययः
गतः = गम् + क्त

अव्यय-पद-चयनम् वाक्य-प्रयोगश्च
अव्ययः = अर्थः – वाक्येषु प्रयोगः
एव = ही – एष एव ते निश्चयः।
इदानीम् = अब – इदानीम् अहम् कुत्र गच्छानि?

पर्यायपदानि
पदानि = पर्यायाः
अथ = तत्पश्चात्
इदानीम् = अधुना
क्व = कुत्र
गेहे = सदने
साधु = शोभनम्
गत: = अगच्छत्
जानामि = अवगच्छामि
प्रतिकारः = समाधानम्
समर्पयामि = ददामि
स्वगतम् = मनसि
सन्तमपि = भवते सति
ते = तव
मे = मह्यम्
बाढम् = उचितम्
इदानीम् = अधुना
तस्मिन् समये = तदानीम्
गृहजन = गृहस्य सदस्यम्

विपर्ययपदानि
पदानि = विपर्ययाः
स्वगतम् = प्रकाशम्
इदानीम् = तदानीम्
गतः = आगतः
जानामि = अजानामि
आसीत् = अस्ति
शिरसि = चरणे
प्रतिकारः = अप्रतिकारः
भयम् = प्रीतिः
गेहे = वने
ते = मे
सुलभेषु = दुर्लभेषु
अर्थलाभेषु = अनर्थलाभेषु
दुष्करम् = सुकरम्
अतिदूरम् = अतिसमीपम्
पूर्वम् = पश्चात्
अनृतम् = सत्यम्

5. सुलभेष्वर्थलाभेषु परसंवेदने जने।
क इदं दुष्करं कुर्यादिदानीं शिविना विना॥

शब्दार्थाः
सुलभेषु – सरल होने पर। अर्थलाभेषु – धन के लाभ। परसंवेदने – दूसरे की वस्तु को समर्पित करने पर। जने – संसार में। कः – कौन। इदम् – यह। दुष्करम् – कठिन। कुर्यात् – करे/कर सकता है। इदानीम् – इस संसार में। शिविना – शिवि के। विना – बिना।

हिंदी अनुवाद
दूसरे की वस्तु को समर्पित करने पर बहुत धन का लाभ सरल होने की स्थिति में दूसरों की वस्तु की सुरक्षा रूपी कठिन कार्य को एक शिवि को छोड़कर तुम्हारे अलावा कौन कर सकता है?

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि = सन्धि/सन्धिविच्छेद
सुलभेष्वर्थलाभेषु = सुलभेषु + अर्थलाभेषु
दु: + करम् = दुष्कर
कुर्यादिदानी = कुर्यात् + इदानीम्

पर्यायपदानि
पदानि = पर्यायाः
सुलभेषु = सरलेषु
अर्थलाभेषु = धन लाभेषु
जने = मनुष्ये
इदानीम् = अधुना
दुष्करम् = कठिनम्

विपर्ययपदानि
पदानि = विपर्ययाः
इदानीम् = तदानीम्
दुष्करम् = सुकरम्
लाभेषु = हानिषु

अंतिम श्लोक का अन्वय तथा भावादि

अन्वयः परस्य संवेदन अर्थलाभेषु सुलभेषु इदं दुष्करं कर्म जने (लोके) शिविना विना कः कर्यात।

भावः – परस्य परकीयस्य अर्थस्य संवेदने समर्पणे कृते सति अर्थलाभेषु सुलभेषु सत्सु स्वार्थ तृणीकृत्य परसंरक्षणरूपमेवं दुष्करं कर्म जने (लोके) एकेन शिविना विना त्वदन्यः कः कुर्यात्। शिविरपि कृते युगे कृतवान् त्वं तु इदानीं कलौ युगे करोषि इति ततोऽप्यतिशयित-सुचरितत्वमिति भावः।

अर्थ – दूसरों की वस्तु को समर्पित करने पर बहुत धन प्राप्त होने की स्थिति में भी दूसरों की वस्तु की सुरक्षा रूपी कठिन कार्य को एक शिवि को छोड़कर तुम्हारे अलावा दूसरा कौन कर सकता है?

आशय – इस श्लोक के द्वारा महाकवि विशाखत्त ने बड़े ही संक्षिप्त शब्दों में चन्दनदास के गुणों का वर्णन किया है। इसमें कवि ने कहा है कि दूसरों की वस्तु की रक्षा करनी कठिन होती है। यहाँ चन्दनदास के द्वारा अमात्य राक्षस के परिवार की रक्षा का कठिन काम किया गया है। न्यासरक्षण को महाकवि भास ने भी दुष्कर कार्य मानते हुए स्वप्नवासवदत्तम् में कहा है-दुष्कर न्यासरक्षणम्।

चन्दनदास अगर अमात्य राक्षस के परिवार को राजा को समर्पित कर देता, तो राजा उससे प्रसन्न भी होता और बहुत सा धन पारितोषिक के रूप में देता, पर उसने भौतिक लाभ व लोभ को दरकिनार करते हुए अपने प्राणप्रिय मित्र के परिवार की रक्षा को अपना कर्त्तव्य माना और इसे निभाया भी। कवि ने। चन्दनदास के इस कार्य की तुलना राजा शिवि के कार्यों से की है, जिन्होंने अपने शरणागत कपोत की रक्षा के लिए अपने शरीर के अंगों को काटकर दे दिया था। राजा शिवि ने तो सतयुग में ऐसा किया था, पर चन्दनदास ने ऐसा कार्य इस कलियुग में किया है, इसलिए वे और अधिक प्रशंसा के पात्र हैं।

भूकंपविभीषिका Summary Notes Class 10 Sanskrit Chapter 10

By going through these CBSE Class 10 Sanskrit Notes Chapter 10 भूकंपविभीषिका Summary, Notes, word meanings, translation in Hindi, students can recall all the concepts quickly.

Class 10 Sanskrit Chapter 10 भूकंपविभीषिका Summary Notes

भूकम्पविभीषिका पाठपरिचयः
हमारे वातावरण में भौतिक सुख-साधनों के साथ-साथ अनेक आपदाएँ भी लगी रहती हैं। प्राकृतिक आपदाएँ जीवन को अस्त-व्यस्त कर देती हैं। कभी किसी महामारी की आपदा. बाढ़ तथा सूखे की आपदा या तूफ़ान के रूप में भयङ्कर प्रलय-ये सब हम अपने जीवन में देखते तथा सुनते रहते हैं। भूकम्प भी ऐसी आपदा है, जिस पर यहाँ दृष्टिपात किया गया है। इस पाठ के माध्यम से यह बताया गया है कि किसी भी आपदा में बिना किसी घबराहट के, हिम्मत के साथ किस प्रकार हम अपनी सुरक्षा स्वयं कर सकते हैं।
भूकंपविभीषिका Summary Notes Class 10 Sanskrit Chapter 10

भूकंपविभीषिका Word Meanings Translation in Hindi

1. एकोत्तर द्विसहस्त्रख्रीष्टाब्दे (2001 ईस्वीये वर्षे) गणतन्त्र-दिवस-पर्वणि यदा समग्रमपि भारतराष्ट्र नृत्य-गीतवादित्राणाम् उल्लासे मग्नमासीत् तदाकस्मादेव गुर्जर- राज्यं पर्याकुल, विपर्यस्तम्, क्रन्दनविकलं, विपन्नञ्च जातम्। भूकम्पस्य दारुण- विभीषिका समस्तमपि गुर्जरक्षेत्रं विशेषेण च कच्छजनपदं ध्वंसावशेषु परिवर्तितवती। भूकम्पस्य केन्द्रभूतं भुजनगरं तु मृत्तिकाक्रीडनकमिव खण्डखण्डम् जातम्। बहुभूमिकानि भवनानि क्षणेनैव धराशायीनि जातानि। उत्खाता विद्युद्दीपस्तम्भाः। विशीर्णाः गृहसोपान-मार्गाः। फालद्वये विभक्ता भूमिः। भूमिग दुपरि निस्सरन्तीभिः दुर्वार-जलधाराभिः- महाप्लावनदृश्यम् उपस्थितम्। सहस्रमताः प्राणिनस्तु क्षणेनैव मृताः। ध्वस्तभवनेषु सम्पीडिता सहस्रशोऽन्ये सहायतार्थं करुणकरुणं क्रन्दन्ति स्म। हा दैव! क्षुत्क्षामकण्ठाः मृतप्रायाः केचन शिशवस्तु ईश्वरकृपया एव द्वित्राणि दिनानि जीवन धारितवन्तः।

शब्दार्थाः
द्विसहस्त्रखीष्टाब्द: – दो हजार ईस्वीय वर्ष में। पर्वणिः – उत्सव पर। समग्रम् – सारा। नृत्य-ग्रीवादित्राणाम् – नाचने, गाने बजाने के। क्रन्दनविकलम् – रोने-चिल्लाने से दु:खी। जातम् – हो गया। दारुण-विभीषिका – भयानक मुसीबत ने। विशेषण – विशेष करके। वंसावशेषु – खंडहर के रूपों में। परिवर्तितवती – बदल दिया। केन्द्रभूतम् – केन्द्र रहे। मृत्तिकाक्रीडनम् – मिट्टी के खिलौने। खण्डखण्डम् – टुकड़े-टुकड़े। बहुभूमिकानि – बहुमंजिले। उत्खाता: – उखड़ गए। विद्युद्दीपस्तम्भाः – बिजली के खंभे। विशीर्णाः – बिखर गए। गृहसोपान-मार्गाः – घर की सीढ़ियों के मार्ग। फालद्वये – दो भागों में। विभक्ता – बँट गई। भूमिगर्भात् – धरती के अन्दर से। निस्सरन्तीभिः – निकलती हुई। दुर्वार – कठिन (भयानक)। सहस्रमिता – हजारों की संख्या वाले। क्षणेनैव – क्षण भर में ही। मृता: – मर गए। सम्पीडिता – दुःखी। सहस्रशः – हज़ारों लोग। करुणकरुणम् – दुःख से भरे। मृतप्रायाः – लगभग मरे हुए। द्विवाणि – दो-तीन। धारितवन्तः – धारण किए।

हिन्दी अनुवाद
सन् दो हजार एक के साल (26 जनवरी 2001 ई०) गणतन्त्र-दिवस-पर्व पर जब सारा भारत देश नाचने-गाने और बजाने की खुशी में मग्न था तब अचानक ही गुजरात राज्य चारों ओर से व्याकुल, अस्त-व्यस्त, रोने-चिल्लाने से दु:खी और मुसीबत में फँस गया। भूकम्प की भयानक मुसीबत ने सम्पूर्ण गुजरात क्षेत्र को विशेषकर कच्छ जिले को विनाश के बाद बची हुई वस्तु के रूप में बदल दिया था। भूकम्प का केन्द्र रहा भुज शहर तो मिट्टी के खिलौने की तरह टुकड़े-टुकड़े हो (टूट-फूट) गया। बहुमंजिली इमारतें तो क्षण भर में ही धराशायी (गिर) हो गईं। बिजली के खंभे उखड़ गए। घर की सीढ़ीनुमा रास्ते बिखर गए थे। धरती दो भागों में बँट गई थी। धरती के अन्दर से ऊपर की ओर निकलती हुई जलधाराओं ने तो महाप्रलय का दृश्य उपस्थित कर दिया था। हजारों की संख्या में प्राणी क्षणभर में ही मर गए थे। टूटे हुए भवनों में दु:खी हजारों दूसरे लोग सहायता के लिए करुण विलाप कर रहे थे। भूख से दुर्बल (सूखे) कण्ठ वाले लगभग मरे हुए (मरे हुए से) कुछ बच्चों ने तो ईश्वर की कृपा से दो-तीन दिन ही जीवन धारण किए।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि – सन्धिं / सन्धिविच्छेदं
समग्रमपि = समग्रम् + अपि
मग्नमासीत् = मग्नम् + आसीत्
तदाकस्मादेव = तदा + अकस्मात् + एव
विपन्नञ्च = विपत् + नम् + च
समस्तमपि = समस्तम् + अपि
ध्वंसावशेषु = ध्वंस + अवशेषु
क्षणेन + एव = क्षणेनैव
विद्युद्दीपस्तम्भाः = विद्यत् + दीप + स्तम्भाः
भूमिगर्भादुपरि = भूमि-गर्भात् + उपरि
प्राणिनः + तु = प्राणिनस्तु
सहस्त्रशोऽन्ये = सहस्त्रशः + अन्ये
क्षुत्क्षामकण्ठः = क्षुधा + क्षाम् + कण्ठः
शिशवस्तु = शिशवः + तु

समासो-विग्रहो वा
पदानि = समासः/विग्रहः
क्षुत्क्षामकण्ठः = क्षुधा क्षामः कण्ठाः येषाम् ते
महत् प्लावनम् = महाप्लावनम्
बहुभूमिकानि भवनानि = बहव्यः भूमिकाः येषु तानि भवनानि
मृत्तिकाक्रीडनकमिव = मृत्तिकायाः क्रीडनकम् इव

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि = प्रकृतिः + प्रत्ययः
जातम् – जन + क्त
परिवर्तितवती = परिवर्तन + क्तवतु
उत्खाला = उत् + खन् + क्त
विभक्ता – वि + भज् + क्त
उपस्थितम् = उप + स्था + क्त
मृताः = मृ + क्त
सम्पीडिता – सम् + पीड् + क्त
धारितवन्तः = धारय + क्तवतु

अव्ययपद-चयनम् वाक्य प्रयोगश्चः
अव्ययः = अर्थः = वाक्येषु प्रयोगः
यदा = जब = यदा समग्र भारत राष्ट्र-गीत अगायत्।
तु = तो = भुजनगरं तु मृत्तिका क्रीडनकामिव खण्डखण्डम् जातम्।
एव = ही = ईश्वरः सर्वत्र एव अस्ति।

पर्यायपदानि
पदानि = पर्यायाः
पर्वणि = उत्सवे
समग्रम् – सकलम्, सम्पूर्णम्
राष्ट्रम् = देशम्
मग्नम् = लीनम्
अकस्मात् = सहसा
पर्याकुलं = परितः आकुलम्
विपर्यस्तम् = अस्त-व्यस्तम्
विपन्नम् = विपत्ति-युक्तम्
गुर्जर = गुजरात
ध्वंसावशेषु = नाशोपरान्तम अवशिष्टेषु
बहुभूमिकानि = बहवः भूमिकाः
फालद्वये = खण्ड द्वये
विशीर्णाः = नष्टाः
उत्खाताः = उत्पाटिताः
निस्सरन्तीभिः – निर्गच्छन्तीभिः
दुवरि = दुखेन निवारयितुं योग्यः
मृताः = दिवंगताः
ध्वस्तम् = नष्टम्

विपर्ययपदानि
पदानि = विपर्ययाः
दिवस = रात्रि
उल्लासे – अनुल्लासे
आसीत् – अस्ति
परिवर्तितवती = अपरिवर्तितवती
खण्डम् = अखण्डम्
जातम् = अजातम्
उपरि = अधः
उपस्थितम् = अनुपस्थितम्
सहायतार्थ = असहायतार्थ
मृताः = जीविताः

2. इयमासीत् भैरवविभीषिका कच्छ-भूकम्पस्य। पञ्चोत्तर-द्विसहस्रख्रीष्टाब्दे (2005 ईस्वीये वर्षे) अपि कश्मीर-प्रान्ते पाकिस्तान-देशे च धरायाः महत्कम्पनं जातम्। यस्मात्कारणात् लक्षपरिमिताः जनाः अकालकालकवलिताः। पृथ्वी कस्मात्प्रकम्पते वैज्ञानिकाः इति विषये कथयन्ति यत् पृथिव्या अन्तर्गर्भे विद्यमानाः बृहत्यः पाषाण-शिलाः यदा संघर्षणवशात् त्रुट्यन्ति तदा जायते भीषणं संस्खलनम्, संस्खलनजन्य कम्पनञ्च। तदैव भयावहकम्पनं धरायाः उपरितलमप्यागत्य महाकम्पनं जनयति येन महाविनाशदृश्यं समुत्पद्यते।

शब्दार्थाः
भैरवविभीषिका – भयानक विपत्ति। पञ्चोत्तर – पाँच अधिक। द्विसहस्र – दो हजार। धरायाः – धरती का। महत्कम्पनम् – महान कम्पन (कँपकँपी)। जातम् – हुआ। लक्षपरिमिता: – लाख तक। अकाल काल कवलिता: – असमय ही मौत के मुँह में चले गए। पृथिव्या – पृथ्वी के। अन्तर्गर्भे – अन्दर। बृहत्यः – बड़ी-बडी। पाषाणशिला: – पत्थर की शिलाएँ। संघर्षणवशात् – घिसने (कम्पन) के कारण। त्रुट्पन्ति – टूटती हैं। संस्खलनम् – पतन/क्षरण। तदैव – तभी। भयावहकम्पनम् – भयानक कम्पन। जनयति – पैदा करता है। समुत्पद्यते – उत्पन्न होता है। उपरितलम् – ऊपरी तल पर।

हिन्दी अनुवाद
यह कच्छ के भूकम्प की भयानक विभीषिका थी। दो हजार पाँच ईस्वीय वर्ष (2005 ई.) में भी कश्मीर राज्य और पाकिस्तान देश में धरती का महा कम्पन्न हुआ था। जिसके कारण से लाखों लोग असमय ही मौत की भेंट चढ़ गए थे। धरती कैसे काँपती है वैज्ञानिक इस विषय में कहते हैं कि पृथ्वी के अन्दर विद्यमान (स्थित) बड़ी-बड़ी पत्थर की शिलाएँ जब घर्षण (कम्पन) के कारण टूटती हैं तब भयंकर स्खलन (क्षरण / पतन) और स्खलन से उत्पन्न (होने वाला) कंपन पैदा होता है। तभी भयंकर कंपन धरती के ऊपरी तल पर आकर महान कँपकँपी पैदा करता है जिससे महाविनाश का दृश्य पैदा होता है।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि = सन्धि/सन्धिविच्छेद
इयमासीत् = इयम् + आसीत्
पञ्चोत्तर = पञ्च + उत्तर
महत्कम्पन्नं = महत् + कम्पनं
यस्मात्कारणात् – यस्मात् + कारणात्
अन्तर्गर्भ – अन्तः + गर्भ
संस्खलनम् = सम् + स्खलनम्
कम्पनम् + च = कम्पनञ्च
तदा + एव = तदैव
उपरितलमप्यागत्य = उपरि + तलम् + अपि + आगत्य

समासो-विग्रहो वा
पदानि = समासः/विग्रहः
महाकम्पनं = महान् कम्पनम्
महान् विनाश = महाविनाश

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि – प्रकृतिः + प्रत्ययः
जातम् = जन् + क्त
आगत्य = आ + गम् + ल्यप्
समुत्पद्यते = सम् + उत् + पत् + ल्यप्
जायते – जन् + यत्

अव्ययपद-चयनम् वाक्य प्रयोगश्च:
अव्ययः – अर्थः – वाक्येषु प्रयोगः
अपि – भी – अहम् अपि त्वया सह चलिष्यामि।
च – और – कश्मीर प्रान्ते पाकिस्तान देशे च धरायाः महत्कम्पनं जातम्।
यत् – कि – सर्वेजनाः कपयन्ति यत् सत्यमेव जयते।
यदा-तदा – जब-तक – यदा मेघाः गर्जन्ति तदाः मयूराः नृत्यन्ति।

पर्यायपदानि
पदानि = पर्यायाः
कालकवलिताः = मृताः
पृथ्वी = धरा
जनाः = मनुष्याः
पृथिव्या = भूमौ
जायते = उत्पन्नः भवति
भीषणं = भयङकरम्
उपरि = उच्चैः
जनयति = उत्पन्न करोति
संस्खलनम् = विचलनम्
वैज्ञानिकाः = विज्ञानं जानाति ये ते

विपर्ययपदानि
पदानि = विपर्ययाः
आसीत् = अस्ति
धरायाः = गगने
वैज्ञानिकाः = अवैज्ञानिकाः
अन्तः = बहिः
बृहत्यः = लघुः
त्रुट्यन्ति = संयोजयन्ति
उपरि = अधः
आगत्य = अनागत्य
महान् = लघु:

3. चालामुखपर्वतानां विस्फोटैरपि भूकम्पो जायते इति कथयन्ति भूकम्पविशेषज्ञाः। पृथिव्याः गर्भे विद्यमानोऽग्निर्यदा खनिजमृत्तिकाशिलादिसञ्चयं क्वथयति तदा तत्सर्वमेव लावारसताम् उपेत्य दुर्वारगत्या धरा पर्वतं वा विदार्य बहिर्निष्क्रामति। धूमभस्मावृतं जायते तदा गगनम्। सेल्सियश-ताप-मात्राया अष्टशताङ्कतामुपगतोऽयं लावारसो यदा नदीवेगेन प्रवहति तदा पार्श्वस्थग्रामा नगराणि वा तदुदरे क्षणेनैव समाविशन्ति। निहन्यन्ते च विवशाः प्राणिनः। ज्वालामुगिरन्त एते पर्वता अपि भीषणं भूकम्पं जनयन्ति।

शब्दार्थाः
ज्वालामुखपर्वतानाम् – ज्वालामुखी पर्वतों के। जायते – उत्पन्न होता है। गर्भे – अन्दर। विद्यमानः – स्थित। खनिजमृत्तिका शिलादि – खनिज पदार्थ, मिट्टी, शिला (पत्थरों की चट्टानों के)। सञ्चयम् – संचय को। क्वथयति – तपाती है। लावारसताम् – अंगारों के रूप को। उपेत्य – धारण (प्राप्त) करके। दुर्वारंगत्या – तेज गति से। विदार्य – फोड़ कर। धूमभस्मावृतम् – धुएँ और राख से ढका। मात्राया – मात्रा से (का)। अष्टशताङ्कताम् – आठ सौ की संख्या को। उपगतः – प्राप्त। नदीवेगेन – नदी के तेज वेग से। पार्श्वस्थग्रामा: – पास में स्थित गाँवों (गाँव)। तदुदरे – उसके पेटे में (अन्दर)। निहन्यन्ते – मारे जाते हैं। ज्वालाम् उगिरन्तः – ज्वालाओं (अंगारों) को उगलते हुए।

हिन्दी अनुवाद
ज्वालामुखी पर्वतों के विस्फोटों से भी भूकम्प उत्पन्न होता है ऐसा भूकम्प के विशेषज्ञ कहते हैं। पृथ्वी के अन्दर (गर्भ में) स्थित आग जब खनिजों, मिट्टी और शिला (पत्थर) आदि को तपाती (उबालती) है तब वह सब अंगारों का रूप धारण करके तेज़ गति से धरती अथवा पहाड़ को फोड़कर (फाड़कर) बाहर निकलता है। तब आकाश धुएँ और राख से ढक जाता है। सेल्सियस की गर्मी मात्रा के आठ सौ (800) अंकों (आठ सौ डिग्री सेल्सियस) को प्राप्त यह लावा (अंगारे) जब नदी की गति से (नीचे) बहता है तब पास में स्थित गाँव अथवा शहर क्षण भर में ही उसके पेट में समा जाते हैं और विवश (बेचारे) प्राणी मारे जाते हैं। ज्वालाओं को उगलते हुए ये पहाड़ भी भयानक भूकम्प को पैदा करते हैं।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि = सन्धिं/सन्धिविच्छेद
विस्फोटैरपि = विस्फोटैः + अपि।
विद्यमानोऽग्निर्यदा = विद्यमानः + अग्निः + यदा
शिलादिसञ्चयं – शिला + आदि + सञ्चयं।
तत्सर्वमेव = तत् + सर्वम् + एव।
बहिर्निष्क्रामति = बहिः + निस्क्रामति।
अष्टशताङ्कतामुपगतोऽयम् = अष्ट + शताङ्क + ताम् + उपगतः + अयम्
पार्श्वस्थग्रामा = पार्श्वस्थ + ग्रामा
तदुदरे = तत् + उदरे
क्षणेन + एव = क्षणेनैव
ज्वालामुगिरन्त = ज्वालाम् + उगिरन्त

समासो-विग्रहो वा
पदानि = समासः / विग्रहः
भूकम्पविशेषज्ञाः = भुवः कम्पनरहस्यस्यं ये जाति
पृथिव्याः गर्भ = पृथ्वीगर्भ

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि = प्रकृतिः + प्रत्ययः
उपेत्य = उप + इ + ल्यप्
आगत्या = आ + गम् + ल्यप्
विदार्य = वि + दृ + ल्यप्
उगिरन्तः = उत् + गिर् + शत् प्रत्यय

पर्यायपदानि
पदानि = पर्यायाः
भूकम्पविशेषज्ञाः = भुवः कम्पनरहस्यस्य ज्ञातार:
खनिजम् = उत्खननात् प्राप्तं द्रव्यम्
क्वथयति = उत्तप्तं करोति
विदार्य = विदीर्णं कृत्वा, भित्वा, संत्रोट्य
पार्श्वस्थग्रामा = निकटस्थग्रामाः, समीपस्थग्रामा
उदरे = कुक्षौ
समाविशन्ति = अन्तः गच्छन्तिं
उगिरन्तः = प्रकटयन्तः
पर्वतानाम् = शैलानाम्
भूकम्पः = पृथिव्याम् कम्पन्नः जातः
निहन्यन्ते = म्रियन्ते

विपर्ययपदानि
पदानि = विपर्ययाः
बहिः = अन्तः
क्षणेनैव = सुचिरेणैव
ग्रामम् = नगरम्
अग्नि = जलम्
कम्पन्नः = स्थिर:
सर्वमेव = एकमेव
निहन्यन्ते = जन्यन्ते

4. यद्यपि दैवः प्रकोपो भूकम्पो नाम, तस्योपशमनस्य न कोऽपि स्थिरोपायो दृश यते। प्रकृतिसमक्षमद्यापि विज्ञानगर्वितो मानवः वामनकल्प एव तथापि भूकम्परहस्यज्ञाः कथयन्ति यत् बहुभूमिकभवननिर्माणं न करणीयम्। तटबन्धं निर्माय बृहन्मानं नदीजलमपि नैकस्मिन् स्थले पुञ्जीकरणीयम् अन्यथा असन्तुलनवशाद् भूकम्पस्सम्भवति। वस्तुतः शान्तानि एव पञ्चतत्त्वानि क्षितिजलपावकसमीरगगनानि भूतलस्य योगक्षेमाभ्यां कल्पन्ते। अशान्तानि खलु तान्येव महाविनाशम् उपस्थापयन्ति।

शब्दार्थाः
यद्यपि – जबकि। दैवः – प्राकृतिक/दैवीय। प्रकोप: – क्रोध/मुसीबत। उपशमनस्य – शान्त करने का। स्थिर उपाय: – कारगर उपाय। विज्ञानगर्वितः – विज्ञान के ज्ञान से घमंडी। वामनकल्पः – बौने की तरह। बहुभूमिक भवननिर्माणम् – बहुमंजिलें भवन का निर्माण। तटबन्धम् – बाँध को। निर्माय – बनाकर। बृहन्मात्रम् – बड़ी मात्रा में। असन्तुलनवशात् – असंतुलन के कारण से। शान्तानि – शान्त। वस्तुतः – वास्तव में। भूतलस्य – धरती के। कल्पन्ते – समर्थ कहलाते हैं। अशान्तानि – अशान्त। महाविनाशम् – महाविनाश को। उपस्थापयन्ति – पैदा करते हैं। तान्येव – वे ही।

हिन्दी अनुवाद
जबकि भूकम्प दैवीय (प्राकृतिक) प्रकोप (मुसीबत) है, अतः उसके निराकरण (शान्ति) का कोई स्थिर (कारगर) उपाय नहीं दिखाई देता है। प्रकृति के सामने आज भी विज्ञान के ज्ञान से घमण्डी मनुष्य बौने की तरह ही है तो भी भूकम्प के रहस्यों को जानने वाले विद्वान कहते हैं कि बहुमंजिले भवन को नहीं बनाना चाहिए। बाँध बनाकर बड़ी मात्रा में नदी के जल को भी एक स्थान पर नहीं रोकना चाहिए। नहीं तो असन्तुलन के कारण भूकम्प सम्भव है। वास्तव में शान्त पाँचों ही तत्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश धरती के योग-क्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्ति की रक्षा) के लिए समर्थ कहलाते हैं। निश्चय से अशान्त वे ही महाविनाश को पैदा करते हैं।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि = सन्धिं/सन्धिविच्छेद
यद्यपि = यदि + अपि
तस्योपशमनस्य = तस्य + उपशमनस्य
कोऽपि = कः + अपि
स्थिरोपायो = स्थिरः + उपाय:
समक्षमद्यापि = समक्षम् + अद्य + अपि
बृहन्मात्रं = बहत् + मात्रम्
नदीजलमपि = नदी + जलम् + अपि
नैकस्मिन् = न + एकस्मिन्
भूकम्पस्सम्भवति = भूकम्पः + सम्भवति
तान्येव = तानि + एव

समासो-विग्रहो वा
पदानि = समासः / विग्रहः
योगक्षेमाभ्याम् = अप्राप्तस्य प्राप्तिः योगः प्राप्तस्य रक्षण क्षेमः ताभ्याम् इतियोगक्षेमाभ्याः
महान् विनाशम् = महाविनाशम्

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि = प्रकृतिः + प्रत्ययः
करणीयम् = कृ + अनीयर
निर्माय = नि + मृ + ल्यप्

पर्यायपदानि
पदानि = पर्यायाः
उपशमनस्य = शान्ते:
मानव: – नरः
न करणीयम् – अकरणीयम्
स्थले = थले, क्षत्रे
वामनकल्प = वामनसदृशः
निर्माय = निर्माणं कृत्वा
पुञ्जीकरणीयम् = संग्रहणीयम्
समक्षम् = अग्रे, पुरतः
वस्तुतः = यर्थाथ:

विपर्ययपदानि
पदानि = विपर्ययाः
स्थिरः = अस्थिरः
जलम् = अग्निः
सम्भवति = असम्भवति
उपायः = अनुपाय:
स्थले = जले
अशान्तानि = शान्तानि
करणीयम् = उपकरणीयम्
असन्तुलन = सन्तुलन

सूक्तयः Summary Notes Class 10 Sanskrit Chapter 9

By going through these CBSE Class 10 Sanskrit Notes Chapter 9 सूक्तयः Summary, Notes, word meanings, translation in Hindi, students can recall all the concepts quickly.

Class 10 Sanskrit Chapter 9 सूक्तयः Summary Notes

सूक्तयः पाठपरिचयः
यहाँ संग्रहीत श्लोक मूलरूप से तमिल भाषा में रचित ‘तिरुक्कुरल’ नामक ग्रन्थ से लिए गए हैं। तिरुक्कुरल साहित्य की उत्कृष्ट रचना है। इसे तमिल भाषा का ‘वेद’ माना जाता है। इसके प्रणेता तिरुवल्लुवर हैं। इनका काल प्रथम शताब्दी माना गया है। इसमें मानवजाति के लिए जीवनोपयोगी सत्य प्रतिपादित है। ‘तिरु’ शब्द ‘श्रीवाचक’ है तिरुक्कुरल शब्द का अभिप्राय है- श्रिया युक्त वाणी। इसे धर्म, अर्थ, काम, तीन भागों में बाँटा गया है। प्रस्तुत श्लोक सरस सरल भाषायुक्त तथा प्रेरणाप्रद है।

सूक्तयः Summary

पाठसारः
चेन्नई नगर के समुद्रतट पर महाकवि तिरुवल्लुवर की प्रतिमा है। इन्होंने तिरुक्कुरल् नामक एक पावन ग्रन्थ की रचना की है। इसमें सूक्तियों का संग्रह है। प्रस्तुत पाठ में इसी ग्रन्थ से सूक्तियों का संकलन किया गया है। पाठ का सार इस प्रकार है-
पिता पुत्र को विद्या रूपी महान् धन देता है। इसके लिए पिता अत्यधिक तपस्या करता है। यह पुत्र पर पिता का ऋण है।
जैसी सरलता मन में है, वैसी सरलता यदि वाणी में भी हो तो महापुरुष इस स्थिति को समत्व कहते हैं।
जो धर्मनिष्ठ वाणी को छोड़कर कठोर वाणी बोलता है, वह मूर्ख पके फल को छोड़कर कच्चे फल का सेवन करता है।
सूक्तयः Summary Notes Class 10 Sanskrit Chapter 9
इस संसार में विद्वान् व्यक्ति ही वास्तविक नेत्रों वाले कहे जाते हैं। भौतिक आँखें तो नाममात्र के नेत्र हैं।
जो मन्त्री बोलने में चतुर, धीर तथा सभा में निडर होकर मन्त्रणा देने वाला है, वह शत्रुओं के द्वारा किसी प्रकार से पराजित नहीं होता है। जो व्यक्ति अपना कल्याण तथा अनेक सुखों की कामना करता है, वह अन्य व्यक्तियों के लिए कदापि अहितकर कार्य न करे।
सदाचार प्रथम धर्म कहा गया है। अतः प्राण देकर भी सदाचार की रक्षा विशेष रूप से करनी चाहिए।
जिस किसी के द्वारा जो कुछ भी कहा गया है, उसके वास्तविक अर्थ का निर्णय जिसके द्वारा किया जा सकता है, वह ही ‘विवेक’ कहलाता है।

सूक्तयः Word Meanings Translation in Hindi

1. पिता यच्छति पुत्राय बाल्ये विद्याधनं महत्।
पिताऽस्य किं तपस्तेपे इत्युक्तिस्तत्कृतज्ञता॥1॥

शब्दार्थाः
बाल्ये – (बाल्ये वयसि)-बचपन में।
महत् – (बृहत्)-बड़ा।
उक्तिः – (कथनम्)-कथन।

हिंदी अनुवाद
पिता पुत्र को बचपन में विद्यारूपी बहुत बड़ा धन देता है। इससे पिता ने क्या तप किया? यह कथन ही उसकी कृतज्ञता है।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि – सन्धिं/सन्धिविच्छेद
तपस्तेपे – तपः + तेपे (विसर्ग सन्धिः)।
पिताऽस्य – पिता + अस्य (दीर्घ सन्धिः)।
इत्युक्तिः – इति + उक्तिः (यण् सन्धिः)।

समासो-विग्रहो वा
पदानि – समासः/विग्रहः – समासनामानि
विद्याधनम् – विद्या एव धनम् कर्मधारयः – कर्मधारयः
तस्य कृतज्ञता – तत्कृतज्ञता – षष्ठी तत्पुरुषः

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि – प्रकृतिः + प्रत्ययः
उक्तिः – वच् + क्तिन्
कृतज्ञता – कृतज्ञ + तल्

2. अवक्रता यथा चित्ते तथा वाचि भवेद् यदि।
तदेवाहुः महात्मानः समत्वमिति तथ्यतः॥2॥

शब्दार्थाः
चित्ते – (मनसि)-मन में।
समत्वम् – समानता।
वाचि – (वाण्याम्)-वाणी में।
तथ्यतः – (यथार्थरूपेण) वास्तव में।

हिंदी अनुवाद
मन में जैसी सरलता हो, वैसी ही यदि वाणी में हो, तो उसे ही महात्मा लोग वास्तव में समत्व कहते हैं।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि – सन्धि / सन्धिविच्छेद
तदेवाहुः – तत् + एव (व्यञ्जन सन्धिः) + आहुः (दीर्घ सन्धिः)।
समत्वमिति – समत्त्वम् + इति (संयोगः)

समासो-विग्रहो वा
पदानि – समासः / विग्रहः – समास नामानि
अवक्रता – न वक्रता – नञ् तत्पुरुषः

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि – प्रकृतिः + प्रत्ययः
अवक्रता – अवक्र + तल्
तथ्यतः – तथ्य + तसिल्
समत्वम् – सम + त्वं

3. त्यक्त्वा धर्मप्रदां वाचं परुषां योऽभ्युदीरयेत्।
परित्यज्य फलं पक्वं भुङ्क्तेऽपक्वं विमूढधीः॥3॥

शब्दार्थाः
परुषां – (कठोराम्)-कठोर को।
भुङ्क्ते – (खादति)-खाता है।
अभ्युदीरयेत् – (वदेत्)-बोलता है।
धर्मप्रदाम् – (धर्मयुक्ताम्)-धर्मनिष्ठ सत्य व मधुर वाणी को।

हिंदी अनुवाद
जो धर्मप्रद वाणी को छोड़कर कठोर वाणी बोले, वह मूर्ख (मानो) पके हुए फल को छोड़कर कच्चा फल खाता है।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि – सन्धिं/सन्धिविच्छेदं
योऽभ्युदीरयेत् – यः + अभि (विसर्ग सन्धिः) + उदीरयेत् (यण् सन्धिः)।
भुङ्क्तेऽपक्वं – भुम् + क्ते (परसवर्ण सन्धिः) + अपक्वं (पूर्वरूप सन्धिः)।

समासो-विग्रहो वा
पदानि – समासः/विग्रहः – समासः/विग्रहः
धर्मप्रदां – धर्म प्रददाति इति – उपपद तत्पुरुषः
न पक्वं – अपक्व – नञ् तत्पुरुषः
विमूढधीः – विमूढा धीः यस्य सः – बहुव्रीहिः

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि – प्रकृतिः + प्रत्ययः
त्यक्त्वा – त्यज् + क्त्वा
परित्यज्य – परि + त्यज् + ल्यप्
पक्वम् – पच् + क्त

4. विद्वांस एव लोकेऽस्मिन् चक्षुष्मन्तः प्रकीर्तिताः।
अन्येषां वदने ये तु ते चक्षुर्नामनी मते ॥4॥

शब्दार्थाः
चक्षुष्मन्तः – (नेत्रवन्तः)-आँखों वाले।
प्रकीर्तिताः – (कथिताः) कहे गए हैं।
वदने – (मुखे) चेहरे पर।
मते – (विचारे) विचार में।

हिंदी अनुवाद
इस संसार में विद्वान लोग ही आँखों वाले कहे गए हैं। दूसरों के (मूल् के) मुख पर जो आँखें हैं, वे तो केवल नाम की ही हैं।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि – सन्धिं / सन्धिविच्छेद
विद्वांस एव – विद्वांसः + एव (विसर्ग सन्धिः)
लोकेऽस्मिन् – लोके + अस्मिन् (पूर्वरूपसन्धिः)

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि – प्रकृति + प्रत्ययः
चक्षुष्मन्तः – चक्षुष् + मतुप्।
प्रकीर्तिताः – प्र + कीर् + क्त।

5. यत् प्रोक्तं येन केनापि तस्य तत्त्वार्थनिर्णयः।
कर्तुं शक्यो भवेद्येन स विवेक इतीरितः॥5॥

शब्दार्थाः
प्रोक्तम् – (कथितम्)-कहा गया है।
ईरितः – (कथित:)-कहा गया है।

हिंदी अनुवाद
जिस किसी के द्वारा भी जो कहा गया है, उसके वास्तविक अर्थ का निर्णय जिसके द्वारा किया जा सकता है, उसे विवेक कहा गया है।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि – सन्धि / सन्धिविच्छेदं
प्रोक्तम् – प्र + उक्तम् (गुणसन्धिः)
केनापि – केन + अपि (दीर्घसन्धि:)
इतीरितः – इति + ईरितः (दीर्घसन्धिः)

समासो-विग्रहो वा
पदानि – समासः / विग्रहः – समासनामानि
तत्त्वार्थनिर्णयः – तत्त्वार्थस्य निर्णयः – षष्ठी तत्पुरुषः

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि – प्रकृतिः + प्रत्ययः
कर्तुम् – कृ + तुमुन्
प्रोक्तम् – प्र + वच् + क्त
ईरितः – ईर् + क्त
शक्यः – शक् + यत्

6. वाक्पटुधैर्यवान् मन्त्री सभायामप्यकातरः।
स केनापि प्रकारेण परैर्न परिभूयते॥6॥

शब्दार्थाः
वाक्पटुः – (वाण्याम् निपुणः) बोलने में निपुण।
अकातरः – (भयरहित:)-निडर।
परिभूयते – (तिरस्क्रियते), अपमानित होता है।

हिंदी अनुवाद
जो मंत्री बोलने में चतुर, धैर्यवान् और सभा में भी निडर होता है वह शत्रुओं के द्वारा किसी भी प्रकार से अपमानित नहीं किया जा सकता है।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि – सन्धिं/सन्धिविच्छेद
वाक्यपटुधैर्यवान् – वाक्पटुः + धैर्यवान् (विसर्ग सन्धिः)
स केनापि – सः + केनापि (विसर्ग सन्धिः)
अप्यकातरः – अपि + अकातरः (यण् सन्धिः)
परैर्न – परैः + न (विसर्ग सन्धिः)
केन + अपि – केनापि (दीर्घ सन्धिः)

समासो-विग्रहो वा
पदानि – समासः/विग्रह – समासनामानि
वाक्पटुः – वाचि पटुः – सप्तमी तत्पुरुषः
अकातरः – न कातर: – नञ् तत्पुरुषः

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि – प्रकृतिः + प्रत्ययः
धैर्यवान् – धैर्य + मतुप्
मन्त्री – मन्त्र + इन्

7. य इच्छत्यात्मनः श्रेयः प्रभूतानि सुखानि च।
न कुर्यादहितं कर्म स परेभ्यः कदापि च॥7॥

शब्दार्थाः
श्रेयः – (कल्याणम्)-कल्याण।
अहितं – (हितरहितम्)-बुरा।

हिंदी अनुवाद
जो (मनुष्य) अपना कल्याण और बहुत अधिक सुख चाहता है, उसे दूसरों के लिए कभी अहितकारी कार्य नहीं करना चाहिए।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि – सन्धि / सन्धिविच्छेदं
इच्छत्यात्मनः – इच्छति + आत्मनः (यण् सन्धिः)
कुर्यादहितं – कुर्यात् + अहितं (जशत्व सन्धिः)
कदा + अपि – कदापि (दीर्घ सन्धिः)

समासो-विग्रहो वा
पदानि – समासः / विग्रह – समासनामानि
अहित – न हितम् – नञ् तत्पुरुषः
आत्मनः श्रेयः – आत्मश्रेयः – षष्ठी तत्पुरुषः

8. आचारः प्रथमो धर्मः इत्येतद् विदुषां वचः।
तस्माद् रक्षेत् सदाचारं प्राणेभ्योऽपि विशेषतः॥8॥

शब्दार्थाः
आचारः – (सदाचारः) अच्छा आचरण।
विशेषतः – विशेषरूप से।
वचः – (उक्तिः), कथन।

हिंदी अनुवाद
आचरण (मनुष्य का) पहला धर्म है, यह विद्वानों का वचन है। इसलिए सदाचार की रक्षा प्राणों से भी बढ़कर करनी चाहिए।

सन्धिः-विच्छेदो वा
पदानि – सन्धि/सन्धिविच्छेदं
प्रथमो धर्मः – प्रथमः + धर्मः (विसर्ग सन्धिः)
इत्येतद् – इति + एतद् (यण सन्धिः)
सदाचारम् – सत् + आचरम् (व्यंजन सन्धिः)
प्राणेभ्योऽपि – प्राणेभ्यो + अपि (पूर्वरूप सन्धिः)

समासो-विग्रहो वा
पदानि – समासः/विग्रह – समास नामानि
विदुषां वचः – विद्वद्वचः – षष्ठी तत्पुरुषः
शोभनम् आचारम् – सदाचारम् – कर्मधारयः

प्रकृति-प्रत्ययोः विभाजनम्
पदानि – प्रकृतिः + प्रत्ययः
विशेषतः – विशेष + तसिल्