Class 12 Hindi Aroh Chapter 16 Summary नमक

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नमक Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 16

नमक पाठ का सारांश

नमक’ कहानी रजिया सज्जाद जहीर द्वारा रचित एक उत्कृष्ट कहानी है। यह भारत-पाक विभाजन के बाद सरहद के दोनों तरफ के विस्थापित लोगों के दिलों को टटोलती एक मार्मिक कहानी है। दिलों को टटोलने की इस कोशिश में उन्होंने अपने-पराए देश-परदेश की।

कई प्रचलित धारणाओं पर सवाल खड़े किए हैं। विस्थापित होकर आई सिख बीबी आज भी लाहौर को ही अपना वतन मानती हैं और ॥ सौगात के तौर पर वहाँ का लाहौरी नमक ले आने की फरमाइश करती हैं। सफ़िया का बड़ा भाई पाकिस्तान में एक बहुत बड़ा पुलिस अफसर है। सफ़िया के नमक को ले जाने पर वह उसे गैर-कानूनी बताता है। लेकिन सफ़िया वहाँ से नमक ले जाने की जिद्द करती है। वह नमक को एक फलों की टोकरी में डालकर कस्टम अधिकारियों से। बचना चाहती है।

सफ़िया को विस्थापित सिख बीबी याद आती हैं, जो अभी भी लाहौर को ही अपना वतन मानती है। अब भी उनके हृदय में अपने लाहौर का सौंदर्य समाया हुआ है। सफ़िया भारत आने के लिए फर्स्ट क्लास के वेटिंग रूम में बैठी थी। वह मन-ही-मन में सोच रही थी कि उसके किन्नुओं की टोकरी में नमक है, यह बात केवल वही जानती है, लेकिन वह मन-ही-मन कस्टम वालों से डरी। हुई थी। कस्टम अधिकारी सफ़िया को नमक ले जाने की इजाजत देता है तथा देहली को अपना वतन बताता है, तथा सफ़िया को कहता।

है कि “जामा मस्जिद की सीढ़ियों को मेरा सलाम कहिएगा और उन खातून को यह नमक देते वक्त मेरी तरफ से कहिएगा कि लाहौर अभी तक उनका वतन है और देहली मेरा, तो बाकी सब रफ्ता-रफ्ता ठीक हो जाएगा।” रेल में सवार होकर सफ़िया पाकिस्तान से अमृतसर पहुँची। वहाँ भी उसका सामान कस्टम वालों ने चेक किया। भारतीय कस्टम अधिकारी सुनील दासगुप्त ने सफ़िया को कहा कि “मेरा वतन ढाका है।” और उसने यह भी बताया कि जब भारत-पाक विभाजन हुआ था, तभी वे भारत में आए थे।

इन्होंने भी सफ़िया को नमक अपने हाथ से सौंपा। इसे देखकर सफ़िया सोचती रही कि किसका वतन कहाँ है? इस कहानी के माध्यम से लेखिका ने बताया है कि राष्ट्र-राज्यों की नई सीमा रेखाएँ खींची जा चुकी हैं और मजहबी आधार पर लोग : । इन रेखाओं के इधर-उधर अपनी जगहें मुकर्रर कर चुके हैं, इसके बावजूद ज़मीन पर खींची गई रेखाएँ उनके अंतर्मन तक नहीं पहुंच पाई हैं।

नमक लेखक परिचय

लेखिका परिचय जीवन-परिचय-रज़िया सज्जाद जहीर आधुनिक उर्दू कथा-साहित्य की प्रमुख लेखिका मानी जाती हैं। उनका जन्म 15 फरवरी, सन् 1917 ई० में राजस्थान के अजमेर में हुआ था। उन्होंने बी०ए० तक की शिक्षा घर पर रहकर ही प्राप्त की। विवाह के बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम०ए० उर्दू की परीक्षा पास की। सन् 1947 ई० में वे अजमेर से लखनऊ आकर करामत हुसैन गर्ल्स कॉलेज में अध्यापन कार्य करने लगीं।

Class 12 Hindi Aroh Chapter 16 Summary नमक

सन् 1965 ई० में उनकी नियुक्ति सोवियत सूचना विभाग में हुई। उन्हें सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार प्राप्त हुआ। उत्तर प्रदेश से उन्हें उर्दू अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें अखिल भारतीय लेखिका संघ अवार्ड से अलंकृत किया गया। अंततः 18 दिसंबर, सन् 1979 ई० को उनकी मृत्यु हो गई। प्रमुख रचनाएँ-रजिया सज्जाद जहीर मूलत: उर्दू की कहानी लेखिका हैं। उनका उर्दू कहानियों का संग्रह ‘जर्द गुलाब’ प्रमुख है। साहित्यिक विशेषताएँ-श्रीमती रजिया सज्जाद जहीर जी का आधुनिक उर्दू कथा-साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने कहानी और उपन्यास दोनों लिखे हैं। उन्होंने उर्दू में बाल-साहित्य की रचना भी की है।

अपनी रचनाओं में लेखिका ने बालमनोविज्ञान के अनेक सुंदर चित्र अंकित किए हैं। उनकी कहानियों में सामाजिक सद्भाव, धार्मिक सहिष्णुता और आधुनिक संदर्भो में बदलते हुए पारिवारिक मूल्यों को उभारने का सफल प्रयास मिलता है। उन्होंने अपनी अनेक कहानियों में समकालीन, सामाजिक, धार्मिक, पारिवारिक आदि विसंगतियों और विडंबनाओं का अनूठा चित्रण किया है।

सामाजिक यथार्थ और मानवीय गुणों का सहज सामंजस्य उनकी कहानियों की महत्वपूर्ण विशेषता है। उनकी कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत हैं। प्रस्तुत कहानी ‘नमक’ में लेखिका ने भारत-पाक विभाजन के पश्चात सरहद के दोनों ओर विस्थापित पुनर्वासित लोगों के दिलों को टटोलते हुए उनका मार्मिक वर्णन किया है। इसी प्रकार उनकी अनेक कहानियाँ मानवीय पीड़ाओं का सजीव और मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती हैं। भाषा-शैली-रज़िया जी की भाषा सहज, सरल और मुहावरेदार है।

वे उर्दू भाषा की श्रेष्ठ लेखिका हैं। उनका साहित्य उर्दू भाषा में रचित है। उनकी कुछ कहानियाँ देवनागरी लिपि में भी लिखी जा चुकी हैं। उनकी कहानियों में उर्दू के साथ-साथ अरबी-फारसी आदि अनेक भाषाओं के शब्द भी मिलते हैं। मुहावरों के प्रयोग से उनकी भाषा में रोचकता उत्पन्न हुई है। वस्तुतः श्रीमती रज़िया सज्जाद जहीर उर्दू कथा-साहित्य की एक महान लेखिका हैं। उनका उर्दू कथा-साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान है।

 

Class 12 Hindi Aroh Chapter 15 Summary चार्ली चैप्लिन यानी हम सब

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चार्ली चैप्लिन यानी हम सब Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 15

चार्ली चैप्लिन यानी हम सब पाठ का सारांश

‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब लेखक विष्णु खरे द्वारा रचित रचना है। इसमें लेखक ने हास्य फिल्मों के महान अभिनेता और निर्देशक चार्ली चैप्लिन के कला पक्ष की कुछ मूलभूत विशेषताओं को रेखांकित किया है। लेखक की दृष्टि में करुणा और हास्य के तत्वों । का मेल चार्ली की सर्वोत्तम विशेषता रही है। चार्ली चैप्लिन दुनिया के महान हास्य कलाकार थे। 75 वर्षों में उनकी कला दुनिया के सामने है।

उनकी कला दुनिया की पाँच पीड़ियों को मंत्रमुग्ध कर चुकी है। आज चार्ली समय, भूगोल और संस्कृतियों से खिलवाड़ करता हुआ। भारत को भी अपनी कला से हँसा रहा है। पश्चिमी देशों के साथ-साथ विकासशील देशों में भी चाली की प्रसिद्धि दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। चार्ली की फ़िल्में बुद्धि की अपेक्षा भावनाओं पर टिकी हुई हैं। उनकी ‘मेट्रोपोलिस’, ‘दी कैबिनेट ऑफ डॉक्टर कैलिगारी’, ‘द रोवंथ सील’, लास्ट इयर इन मारिएनबाड’, ‘द सैक्रिफाइस’ जैसी फिल्में दर्शकों से एक उच्चतर अहसास की माँग करती हैं। चाली की फ़िल्मों। का एक विशेष गुण यह है कि उनकी फ़िल्मों को पागलखाने के मरीज, विकल मस्तिष्क लोग तथा आइन्सटाइन जैसे महान प्रतिभा वाले लोग एक साथ रसानंद के साथ देख सकते हैं। चार्ली ने फ़िल्म कला को लोकतांत्रिक बनाया; साथ ही दर्शकों की वर्ण व्यवस्था तथा वर्ग को भी तोड़ा।

चार्ली एक परित्यक्ता तथा दसरे दर्जे की स्टेज अभिनेत्री का बेटा था, जिसे गरीबी, समाज तथा माँ के पागलपन से संघर्ष करना पड़ा। अपनी नानी की तरफ से वे खानाबदोशों से जुड़े हुए थे, जबकि पिता की ओर से वे यहूदी थे। दरअसल सिद्धांत कला को जन्म नहीं देते, बल्कि कला स्वयं अपने सिद्धांत या तो लेकर आती है या बाद में उन्हें गढ़ना पड़ता है। चार्ली चैप्लिन की कलाकारी से हँसने वाले लोग मैल ओटिंगर या जेम्स एजी की अत्यंत सारगर्भित समीक्षाओं से सरोकार नहीं रखते।

म चाली की कलाकारी को चाहने वाले लोग उन्हें समय और भूगोल से काटकर देखते हैं, इसलिए उनकी महानता ज्यों-की-त्यों बनी। हुई है। चार्ली ने अपने जीवन में बुद्धि की अपेक्षा भावना को बेहतर माना है। यह बचपन की घटनाओं का प्रभाव था। एक बार जब वे बीमार हुए थे, तब उनकी माँ ने उन्हें बाइबल से ईसा मसीह का जीवन पढ़कर सुनाया था। ईसा के सूली पर चढ़ने के प्रकरण तक: “आते-आते माँ और चाली दोनों रोने लगे।

यही भावनात्मक प्रभाव उनके जीवन पर सदा बना रहा। भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र में अनेक रस हैं। जीवन हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, राग-विराग का सामंजस्य है। ये जीवन में सदा आते-जाते रहते हैं। लेकिन करुणा और हास्य का वह सामंजस्य भारतीय परंपरा के साहित्य में नहीं मिलता, जो चैप्लिन की कलाकारी में दिखाई देता है। किसी भी समाज में अमिताभ बच्चन या दिलीप कुमार जैसे दो-चार लोग ही होते हैं, जिनका नाम लेकर ताना दिया जाता है। लेकिन किसी भी व्यक्ति को परिस्थितियों।

का औचित्य देखते हुए चार्ली या जानी वॉकर कह दिया जाता है। दरअसल मनुष्य स्वयं ईश्वर या नियति का विदूषक, कलाउन जोकर या ‘साइड-किक है। गांधी और नेहरू भी चार्ली से प्रभावित थे। को मोर राजकपूर की ‘आवारा’ और ‘श्री 420’ फिल्मों से पहले फ़िल्मी नायकों पर हँसने की तथा स्वयं नायकों के अपने पर हँसने की परंपरा नहीं थी। दिलीप कुमार, देवानंद, शम्मी कपूर, अमिताभ बच्चन, श्रीदेवी आदि महान कलाकार भी किसी-न-किसी रूप में चाली से प्रेरित हैं। – चार्ली की अधिकांश फ़िल्में मानवीय हैं। सवाक पर्दे पर अनेक महान हास्य कलाकार हुए, लेकिन वे चार्ली की सार्वभौमिकता तक नहीं पहुँच सके। जहाँ चार्ली का चिर-युवा होना या बच्चों जैसा दिखना एक विशेषता ही है। उनकी सर्वोत्तम विशेषता है कि वे किसी भी संस्कृति को विदेशी नहीं लगते।

चाली की महानता केवल पश्चिम में ही नहीं है, बल्कि भारत में भी उनका महत्त्व है। चैप्लिन का भारत में महत्व यह है कि वह ‘अंग्रेजों जैसे’ व्यक्तियों पर हँसने का अवसर देते हैं। चार्ली स्वयं पर सबसे अधिक तब हँसता है, जब वह स्वयं को गर्वोन्मत्त, आत्म-विश्वास से लबरेज, सफलता, सभ्यता, संस्कृति तथा समृद्धि की प्रतिमूर्ति, दूसरों से ज्यादा शक्तिशाली तथा श्रेष्ठ, अपने ‘वज्रादपि कठोराणि’ अथवा ‘मृदुनि कुसुमादपि’ क्षण में दिखलाता है। भारतीय लोगों के जीवन के अधिकांश हिस्सों में वे चाली के ही टिली होते हैं, जिसके रोमांस हमेशा पंक्चर होते हैं, मूलतः हम सब । चाली है, क्योंकि हम सुपरमैन नहीं बन सकते। सत्ता, शक्ति, बुद्धिमत्ता, प्रेम और पैसे के चरमोत्कर्ष में जब हम आईना देखते हैं तो चेहरा चार्ली-चाली हो जाता है।

चार्ली चैप्लिन यानी हम सब लेखक परिचय

लेखक-परिचय जीवन-परिचय-आधुनिक हिंदी-साहित्य की समकालीन कविता और आलोचना में विष्णु खरे एक विशिष्ट लेखक हैं। इनका जन्म सन् 1940 ई० में मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा नामक स्थान पर हुआ था। प्रतिभा के आधार पर ही इन्हें रघुवीर सहाय सम्मान से पुरस्कृत किया गया। इसके अतिरिक्त इन्हें दिल्ली के हिंदी अकादमी पुरस्कार, शिखर सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, फिनलैंड के राष्ट्रीय सम्मान नाइट ऑफ़ दि ऑर्डर ऑफ़ दि व्हाइट रोज़ से सुशोभित किया जा चुका है। यह महान साहित्यकार अपनी कुशलता के बल पर निरंतर हिंदी साहित्य रूपी वृक्ष को अभिसिंचित कर रहा है।
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रचनाएँ-विष्णु खरे बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार हैं। इन्होंने अनेक विधाओं में लेखन किया है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं

कविता संग्रह-खुद अपनी आँख से, एक गैर रूमानी समय में, सबकी आवाज़ के पर्दे में, पिछला बाकी आदि।
आलोचना-आलोचना की पहली किताब।
सिने आलोचना-सिनेमा पढ़ने के तरीके।
अनुवाद-मरु प्रदेश और अन्य कविताएँ (टी०एस० इलियट), यह चाक समय (अॅतिला-योझेफ), कालेवाला (फिनलैंड का राष्ट्रकाव्य)।साहित्यिक विशेषताएँ -.विष्णु खरे हिंदी साहित्य के प्रमुख साहित्यकार हैं। इन्होंने हिंदी जगत को अत्यंत गहन विचारपरक काव्य प्रदान किया है।

इसके साथ-साथ इन्होंने अनेक आलोचनात्मक लेख भी लिखे हैं। इन्होंने विश्व साहित्य का गहन अध्ययन किया है, जो इनके रचनात्मक और आलोचनात्मक लेखन में विशेष रूप से दिखाई देता है। ये सिनेमा जगत के गहन जानकार हैं और वे सतत सिनेमा की विधा पर गंभीर लेखन कर रहे हैं। 1971-73 के विदेश प्रवास के दौरान इन्होंने तत्कालीन चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग के प्रतिष्ठित फ़िल्म क्लब की सदस्यता प्राप्त करके संसार की सैकड़ों श्रेष्ठ फ़िल्में देखीं। ये साहित्य जगत के एक ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होंने फ़िल्मों । को समय, समाज और विचारधारा के आलोक में देखा तथा इतिहास, संगीत, अभिनय, निर्देशन की बारीकियों के सिलसिले में उनका ।

विश्लेषण किया। इन्होंने सिनेमा लेखन को वैचारिक गरिमा और गंभीरता देने का सफ़र शुरू किया है। अपने लेखन के माध्यम से इन्होंने हिंदी के उस अभाव को थोड़ा भरने में सफलता पाई है, जिसके बारे में उन्होंने अपनी एक किताब की भूमिका में लिखा है-“यह ठीक है कि अब भारत में भी सिनेमा के महत्व और शास्त्रीयता को पहचान लिया गया है और उसके सिद्धांतकार भी उभर आए हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश जितना गंभीर काम हमारे सिनेमा पर यूरोप और अमेरिका में हो रहा है, शायद उसका शतांश भी हमारे यहाँ नहीं है। हिंदी में सिनेमा के सिद्धांतों पर शायद ही कोई अच्छी मूल पुस्तक हो।

हमारा लगभग पूरा समाज अभी भी सिनेमा जाने या देखने को एक हल्के अपराध की तरह देखता है।” भाषा-शैली-विष्णु खरे ने अपने साहित्य लेखन के लिए शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली को अपनाया है। इनकी भाषा भावानुकूल और सरल-सरस है। तत्सम शब्दावली का प्रचुर प्रयोग है। इसके साथ-साथ तद्भव, उर्दू, अरबी, फारसी, अंग्रेजी तथा साधारण बोलचाल की भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। इन्होंने विभिन्न शैलियों का प्रयोग किया है, जिसमें वर्णनात्मक, विवरणात्मक व चित्रात्मक शैलियाँ प्रमुख हैं। मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग के कारण इनकी भाषा में विशेष निखार आ गया है।

Class 12 Hindi Aroh Chapter 14 Summary पहलवान की ढोलक

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पहलवान की ढोलकSummary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 14

पहलवान की ढोलक पाठ का सारांश

‘पहलवान की ढोलक’ फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखित एक श्रेष्ठ कहानी है। फणीश्वर एक आंचलिक कथाकार माने जाते हैं। प्रस्तुत कहानी उनकी एक आंचलिक कहानी है, जिसमें उन्होंने भारत पर इंडिया के छा जाने की समस्या को प्रतीकात्मक रूप से अभिव्यक्त किया है। यह व्यवस्था बदलने के साथ लोक कला और इसके कलाकार के अप्रासंगिक हो जाने की कहानी है।

श्यामनगर के समीप का एक गाँव सरदी के मौसम में मलेरिया और हैजे से ग्रस्त था। चारों ओर सन्नाटे से युक्त बाँस-फूस । की झोंपड़ियाँ खड़ी थीं। रात्रि में घना अंधेरा छाया हुआ था। चारों ओर करुण सिसकियों और कराहने की आवाजें गूंज रही थीं।। सियारों और पेचक की भयानक आवाजें इस सन्नाटे को बीच-बीच में अवश्य थोड़ा-सा तोड़ रही थीं। इस भयंकर सन्नाटे में कुत्ते । समूह बाँधकर रो रहे थे। रात्रि भीषणता और सन्नाटे से युक्त थी, लेकिन लुट्टन पहलवान की ढोलक इस भीषणता को तोड़ने का प्रयास कर रही थी। इसी पहलवान की ढोलक की आवाज इस भीषण सन्नाटे से युक्त मृत गाँव में संजीवनी शक्ति भरा करती थी।

लुट्टन सिंह के माता-पिता नौ वर्ष की अवस्था में ही उसे छोड़कर चले गए थे। उसकी बचपन में शादी हो चुकी थी, इसलिए विधवा सास ने ही उसका पालन-पोषण किया। ससुराल में पलते-बढ़ते वह पहलवान बन गया था। एक बार श्यामनगर में एक मेला लगा। मेले के दंगल में लुट्टन सिंह ने एक प्रसिद्ध पहलवान चाँद सिंह को चुनौती दे डाली, जो शेर के बच्चे के नाम से जाना जाता था। श्यामनगर के राजा ने बहुत कहने के बाद ही लुट्टन सिंह को उस पहलवान के साथ लड़ने की आज्ञा दी, क्योंकि वह एक बहुत प्रसिद्ध पहलवान था।

लुट्टन सिंह ने ढोलक की ‘धिना-धिना, धिकधिना’, आवाज से प्रेरित होकर चाँद सिंह पहलवान को बड़ी मेहनत के बाद चित कर दिया। चाँद सिंह के हारने के बाद लुट्टन सिंह की जय-जयकार होने लगी और वह लुट्टन सिंह पहलवान के नाम से प्रसिद्ध हो गया। राजा ने उसकी वीरता से प्रभावित होकर उसे अपने दरबार में रख लिया। अब लुट्टन सिंह की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। लुट्टन सिंह पहलवान की पली भी दो पुत्रों को जन्म देकर स्वर्ग सिधार गई थी।

लट्टन सिंह अपने दोनों बेटों को भी पहलवान बनाना चाहता था,इसलिए वह बचपन से ही उन्हें कसरत आदि करवाने लग गया। उसने बेटों को दंगल की संस्कृति का पूरा ज्ञान दिया। लेकिन दुर्भाग्य से Jएक दिन उसके वयोवृद्ध राजा का स्वर्गवास हो गया। तत्पश्चात विलायत से नए महाराज आए। राज्य की गद्दी संभालते ही नए राजा साहब ने अनेक परिवर्तन कर दिए।

दंगल का स्थान घोड़ों की रेस ने ले लिया। बेचारे लुट्टन सिंह पहलवान पर कुठाराघात हुआ। वह हतप्रभ रह गया। राजा के इस रवैये को देखकर लुट्टन सिंह अपनी ढोलक कंधे में लटकाकर बच्चों सहित अपने गाँव वापस लौट आया। वह गाँव के एक किनारे पर झोपड़ी में रहता हुआ नौजवानों और चरवाहों को कुश्ती सिखाने लगा। गाँव के किसान व खेतिहर मजदूर भला क्या कुश्ती सीखते।

अचानक गाँव में अनावृष्टि अनाज की कमी, मलेरिया, हैजे आदि भयंकर समस्याओं का वज्रपात हुआ। चारों ओर लोग भूख, हैजे और मलेरिये से मरने लगे। सारे गाँव में तबाही मच गई। लोग इस त्रासदी से इतना डर गए कि सूर्यास्त होते ही अपनी-अपनी । झोंपडियों में घस जाते। रात्रि की विभीषिका और सन्नाटे को केवल लट्टन सिंह पहलवान की ढोलक की तान ही ललकारकर चुनौती देती थी। यही तान इस भीषण समय में धैर्य प्रदान करती थी। यही तान शक्तिहीन गाँववालों में संजीवनी शक्ति भरने का कार्य करती थी।

पहलवान के दोनों बेटे भी इसी भीषण विभीषिका के शिकार हुए। प्रातः होते ही पहलवान ने अपने दोनों बेटों को निस्तेज पाया। बाद में वह अशांत मन से दोनों को उठाकर नदी में बहा आया। लोग इस बात को सुनकर दंग रह गए। इस असह्य वेदना और त्रासदी से भी पहलवान नहीं टूटा।

रात्रि में फिर पहले की तरह ढोलक बजाता रहा; इससे लोगों को सहारा मिला, लेकिन चार-पाँच दिन बीतने के पश्चात जब रात्रि में ढोलक की आवाज सुनाई नहीं पड़ी, तो प्रात:काल उसके कुछ शिष्यों ने पहलवान की लाश को सियारों द्वारा खाया हुआ पाया। इस प्रकार प्रस्तुत कहानी के अंत में पहलवान भी भूख-महामारी की शक्ल में आई मौत का शिकार बन गया। यह कहानी हमारे समक्ष व्यवस्था की पोल खोलती है। साथ ही व्यवस्था के कारण लोक कलाओं के लुप्त होने की ओर संकेत भी करती है तथा हमारे सामने ऐसे । अनेक प्रश्न पैदा करती है कि यह सब क्यों हो रहा है?

पहलवान की ढोलक लेखक परिचय

जीवन-परिचय-फणीश्वर नाथ रेणु हिंदी-साहित्य के प्रमुख आंचलिक कथाकार माने जाते हैं। इनका जन्म 4 मार्च, 1921 को बिहार प्रांत के पूर्णिया वर्तमान में (अररिया) जिले के औराही हिंगना नामक गाँव में हुआ था। वर्ष 1942 के भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में इन्होंने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। वर्ष 1950 में नेपाली जनता को राजशाही दमन से मुक्ति दिलाने हेतु इन्होंने भरपूर योगदान दिया। वर्ष 1952-53 में ये बीमार हो गए। इनकी साहित्य साधना तथा राष्ट्रीय भावना देखकर सरकार ने इन्हें पद्मश्री की उपाधि से अलंकृत किया।
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11 अप्रैल, सन् 1977 को पटना में इनका देहावसान हुआ। रचनाएँ-हिंदी कथा साहित्य में फणीश्वर नाथ रेणु का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैंउपन्यास-मैला आँचल, परती परिकथा, दीर्घतपा, कितने चौराहे आदि। कहानी-तीसरी कसम, उफ मारे गए गुलफाम, पहलवान की ढोलक आदि। साहित्यिक विशेषताएँ-आंचलिक कथा साहित्य में रेणु जी का महत्वपूर्ण योगदान है। इन्होंने इस साहित्य में क्रांति उपस्थित की है। फणीश्वर ने साहित्य के अलावा राजनैतिक एवं सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय योगदान दिया। उनका ‘मैला आँचल’ गोदान के बाद दूसरा प्रसिद्ध उपन्यास है। इस उपन्यास ने हिंदी जगत को एक नई दिशा प्रदान की। इसके पश्चात गाँव की भाषण-संस्कृति और वहाँ के लोक जीवन को उपन्यासों और कथा साहित्य के केंद्र में ला खड़ा किया।

लोकगीत, लोकोक्ति, लोकसंस्कृति, लोकभाषा एवं लोकनायक की इस अवधारणा ने परंपरा को तोड़कर अंचल को ही नायक बना डाला। इनके साहित्य में अंचल कच्चे और अनगढ़ रूप में ही आता है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में जब संपूर्ण विकास शहर की ओर केंद्रित होता जा रहा था, तब ऐसे एकपक्षीय वातावरण में रेणु ने अपने साहित्य से आंचलिक समस्याओं और जीवन की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। फणीश्वर के साहित्य में अंचल-विशेष की सामान्य समस्याओं, कुरीतियों व विषमताओं का सजीव अंकन हुआ है। इन्होंने गाँव का इतिहास, भूगोल, सामाजिक और राजनीतिक चक्र सभी की अभिव्यक्ति की है।

इन्होंने अपने उपन्यासों के माध्यम से गाँव की आंतरिक वास्तविकताओं को प्रयत्न करने का सफल प्रयास किया है। इनके साहित्य की प्रमुख विशेषता यह है कि रचनाकार एक गाँव-विशेष के माध्यम से पूरे देश की कहानी का चित्रण कर देता है। प्रस्तुत कहानी में लेखक ने व्यवस्था को बदलने के साथ-साथ लोककला और इसके कलाकार के अप्रासंगिक हो जाने की कहानी का सजीव चित्रण किया है। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने पुरानी व्यवस्था के स्थान पर नई व्यवस्था के आरोपित हो जाने का चित्रांकन किया है। फणीश्वर की लेखनी में गाँव की संस्कृति को सजीव बनाने की अद्भुत क्षमता है।

इनकी सजीवता को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, मानो प्रत्येक पात्र वास्तविक जीवन जी रहा हो। पात्रों एवं परिवेश का इतना वास्तविक अत्यंत दुर्लभ है। रेणु जी हिंदी साहित्य में वे महान कथाकार हैं, जिन्होंने गद्य में भी संगीत पैदा कर दिया है। इन्होंने परिवेश का मानवीकरण करके उसे सजीव बना दिया है। भाषा-शैली-फणीश्वर एक आंचलिक कथाकार हैं, अत: इन्होंने भाषा भी अंचल विशेष की अपनाई है। इन्होंने सामान्य बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है।

इनकी भाषा सरल-स्वाभाविक बोलचाल की भाषा है। कहीं-कहीं अलंकृत एवं काव्यात्मक भाषा के भी दर्शन होते हैं। इनकी भाषा में अत्यंत गंभीरता है। अनेक स्थलों पर ग्रामीण एवं नगरीय भाषा का मिश्रण रूप भी दृष्टिगोचर होता है। प्रस्तुत कहानी की भाषा सरल, सरस व स्वाभाविक बोलचाल की है। इसमें तत्सम, तद्भव, उर्दू, फ़ारसी आदि भाषाओं के शब्दों का प्रयोग हुआ है। मुहावरों एवं लोकोक्तियों के प्रयोग से इनकी भाषा में रोचकता उत्पन्न हो गई है। पहलवान की ढोलक कहानी भाषा-शैली की दृष्टि से एक श्रेष्ठ कहानी है।

Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 Summary काले मेघा पानी दे

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काले मेघा पानी दे Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 13

काले मेघा पानी दे पाठ का सारांश

‘काले मेघा पानी दे’ संस्मरण धर्मवीर भारती द्वारा रचित है। इसमें लोक-प्रचलित विश्वास और विज्ञान के द्वन्द्व का सुंदर चित्रण हुआ है। विज्ञान का अपना तर्क है और विश्वास की अपनी सामर्थ्य। इसमें कौन कितना सार्थक है, यह प्रश्न पढ़े-लिखे समाज को उत्तेजित करता रहता है। इसी दुविधा को लेकर लेखक ने पानी के संदर्भ में असंग रचा है। लेखक ने अपने किशोरपन जीवन के इस संस्मरण में दिखलाया है कि अनावृष्टि दूर करने के लिए गाँव के बच्चों की इंद्रसेना द्वार-द्वार पानी मांगते चलती है। लेखक का तर्कशील किशोर मन भीषण सूखे में उस पानी को निर्मम बर्बादी के रूप में देखता है।

आषाढ़ के उन सूखे दिनों में जब चहुँ ओर पानी की कमी होती है ये इंद्रसेना गाँव की गलियों में जयकारे लगाते हुए पानी माँगते फिरती है। अभाव । के बावजूद भी लोग अपने-अपने घरों से पानी लेकर इन बच्चों को सिर से पैर तक तर कर देते हैं। आषाढ़ के इन दिनों में गाँव-शहर के सभी लोग गर्मी से परेशान त्राहिमाम कर रहे होते हैं तब ये मंडली ‘काले मेघा पानी दे’, के नारे लगाती हुई यहाँ-वहाँ घूम रही होती है।

अनावृष्टि के कारण शहरों की अपेक्षा गाँवों की हालत त्रासदपूर्ण हो जाती है। खेतों की मिट्टी सूख कर पत्थर हो जाती है। जमीन फटने लगती है। पशु प्यास के कारण मरने लगते हैं। लेकिन बारिश का कहीं नामोनिशान नहीं होता। बादल कहीं नज़र नहीं आते। ऐसे में लोग पूजा-पाठ कर हार जाते तो यह इंद्रसेना निकलती है। लेखक मानता है कि लोग अंधविश्वास के कारण पानी की कमी होते हुए भी पानी को बर्बाद कर रहे हैं। इस तरह के अंधविश्वासों से देश की बहुत क्षति होती है जिसके कारण हम अंग्रेजों से पिछड़ गए और उनके गुलाम बन गए हैं। लेखक वैसे तो इंद्रसेना की उमर का था लेकिन वह आर्यसमाजी संस्कारों से युक्त तथा कुमार-सुधार सभा का उपमंत्री था। अत: उसमें समाज सुधार का जोश अधिक था। : अंधविश्वासों से वह डटकर लड़ता था। लेखक को जीजी उसे अपने बच्चों से ज्यादा प्रेम करती थी। तीज-त्योहार, पूजा अनुष्ठानों को जिन्हें ।

लेखक अंधविश्वास मानता था, जीजी के कहने पर उसे सब कछ करना पड़ता था। इस बार जीजी के कहने पर भी लेखक ने मित्र-मंडली पर पानी नहीं डाला, जिससे वह नाराज हो गई। बाद में लेखक को समझा-बुझाकर उसने अनेक बातें कहीं। पानी फेंकना अंधविश्वास नहीं। यह तो हम उनको अर्घ्य चढ़ाते हैं, जिससे खुश होकर इंद्र हमें पानी देता है। उन्होंने बताया कि ऋषि-मुनियों ने दान को सबसे ऊँचा स्थान । 1 दिया है। जीजी ने लेखक के तर्कों को बार-बार काट दिया। अंत में लेखक को कहा कि किसान पहले पाँच-छह सेर अच्छा गेहूँ बीज रूप : में अपने खेत में बोता है, तत्पश्चात वह तीस-चालीस मन अनाज उगाता है। वैसे ही यदि हम बीज रूप में थोड़ा-सा पानी नहीं देंगे तो । बादल फ़सल के रूप में फिर हमें पानी कैसे देंगे?

व संस्मरण के अंत में लेखक की राष्ट्रीय चेतना का भाव मुखरित होता है कि हम आजादी मिलने के बावजूद भी पूर्णत: आजाद नहीं। हुए। हम आज भी अंग्रेजों की भाषा संस्कृति, रहन-सहन से आजाद नहीं हुए और हमने अपने संस्कारों को नहीं समझा। हम भारतवासी माँगें तो बहुत करते हैं लेकिन त्याग की भावना हमारे अंदर नहीं है। हर कोई भ्रष्टाचार की बात करता है लेकिन कभी नहीं देखता कि क्या | हम स्वयं उसका अंग नहीं बन रहे। देश की अरबों-खरबों की योजनाएं न जाने कहाँ गम हो जाती हैं? लेखक कहता है कि काले मेघा
खूब बरसते हैं लेकिन फूटी गगरी खाली रह जाती है, बैल प्यासे रह जाते हैं। न जाने यह स्थिति कब बदलेगी? लेखक ने देश की भ्रष्टाचार की समस्याओं के प्रति व्यंग्य व्यक्त किया है।

काले मेघा पानी दे लेखक परिचय

लेखक-परिचय जीवन परिचय धर्मवीर भारती आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रमुख साहित्यकार माने जाते हैं। उनका जन्म सन् 1926 में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जनपद में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री चिरंजीव लाल वर्मा तथा माता का नाम श्रीमती चंदा देवी था। भारती जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम०ए० हिंदी की परीक्षा पास की। तत्पश्चात वहीं से पी-एच०डी० की उपाधि भी प्राप्त की। 1960 ई० में ये ‘धर्मयुग’ पत्रिका के संपादक बने और मुंबई में रहने लगे।

Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 Summary काले मेघा पानी दे

सन् 1988 में धर्मयुग के संपादक पद से सेवानिवृत्त होकर फिर मुंबई में ही बस गए। सरकार ने इनको पद्म-श्री की उपाधि से अलंकृत किया। इसके बाद इनको व्यास सम्मान के साथ अनेक राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुए। सन् 1997 ई० में ये नश्वर संसार को छोड़कर चले गए। रचनाएँ-धर्मवीर भारती जी का आजादी के बाद के साहित्यकारों में विशिष्ट स्थान है। ये बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न साहित्यकार माने जाते हैं। इन्होंने काव्य, उपन्यास, कहानी, निबंध आदि अनेक विधाओं पर लेखनी चलाई है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं

काव्य-संग्रह-कनुप्रिया, सात-गीत वर्ष, सपना अभी भी, ठंडा लोहा आदि।
उपन्यास-सूरज का सातवाँ घोड़ा, गुनाहों का देवता आदि।
कहानी-संग्रह-बंद गली का आखिरी मकान।
गीतिनाट्य-अंधायुग।
निबंध संग्रह-पश्यंती, कहनी-अनकहनी, मानव मूल्य और साहित्य, ठेले पर हिमालय। साहित्यिक विशेषताएँ-धर्मवीर भारती आधुनिक मानवीय संवेदना से ओत-प्रोत साहित्यकार थे। भारती जी के लेखन की महत्वपूर्ण ।

विशेषता है कि हर उम्र और हर वर्ग के पाठकों के मध्य उनकी भिन्न-भिन्न रचनाएँ लोकप्रिय हैं। वे मूलत: व्यक्ति स्वातंत्र्य, मानवीय संकट एवं रोमानी चेतना के रचनाकार हैं। तमाम सामाजिक उठा-पटक एवं उत्तरदायित्वों के बावजूद उनके साहित्य में व्यक्ति की स्वतंत्रता ही सर्वोपरि है।

मानवता उनके साहित्य का प्राण-तत्व है। ‘गुनाहों का देवता’ उनका सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास है जिसमें एक सरस और भावपूर्ण प्रेम की अभिव्यक्ति है। दूसरा लोकप्रिय उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ है, जिस पर हिंदी में फ़िल्म भी बन चुकी है। इस उपन्यास में लेखक ने प्रेम को केंद्र-बिंदु मानकर निम्नवर्ग की निराशा, आर्थिक संघर्ष, नैतिक विचलन और अनाचार को चित्रित किया है। ‘अंधायुग’ में स्वतंत्रता के पश्चात नष्ट होते जीवन-मूल्य, अनास्था, मोहभंग, विश्वयुद्ध की विभीषिका से त्रस्त मानवता और अमानवीयता का यथार्थ चित्रण है। भारती के साहित्य में आधुनिक युग की विसंगतियों, समस्याओं, मूल्यहीनता आदि का सुंदर चित्रण हुआ है।

प्रस्तुत संस्मरण ‘काले मेघा पानी दे’ में भारती ने लोक-प्रचलित विश्वास और विज्ञान के द्वंद्व का सुंदर चित्रण किया है। इसमें दिखलाया गया है कि अनावृष्टि दूर करने के लिए गाँव के बच्चों की इंद्रसेना द्वार-द्वार पानी माँगते चलती है और लेखक का तर्कशील किशोरमन भीषण सूखे में उसे पानी की निर्मम बर्बादी के रूप में देखता है। भाषा-शैली-धर्मवीर भारती एक श्रेष्ठ कवि होने के साथ-साथ श्रेष्ठ गद्यकार भी हैं। उनके गद्य लेखन में सहजता और आत्मीयता है। वे बड़ी-से-बड़ी बात, की भी बातचीत की शैली में कहते हैं और सीधे पाठकों के मन को छू लेते हैं। लेखक ने मुख्यतः खड़ी बोली का सहज स्वाभाविक प्रयोग किया है। इनके साहित्य में अंग्रेजी, उर्दू, फ़ारसी आदि भाषाओं के अतिरिक्त साधारण बोलचाल के शब्दों का समायोजन हुआ है।

प्रस्तुत संस्मरण की भाषा-शैली सहज, सरल, स्वाभाविक एवं प्रसंगानकल है, जिसमें खडी-बोली. उर्द, फ़ारसी. साधारण बोलचाल की भाषाओं के शब्दों का सटीक प्रयोग हुआ है। मुहावरों के प्रयोग से भाषा में रोचकता उत्पन्न हो गई है। इन्होंने विचारात्मक, भावात्मक, व्यंग्यात्मक, संस्मरणात्मक शैलियों का प्रयोग किया है। शब्द-रचना अत्यंत श्रेष्ठ है। वस्तुतः धर्मवीर भारती आधुनिक युग के एक श्रेष्ठ साहित्यकार हैं। उनका स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्यकारों में विशिष्ट स्थान है।

Class 12 Hindi Aroh Chapter 12 Summary बाज़ार दर्शन

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बाज़ार दर्शन Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 12

बाज़ार दर्शन पाठ का सारांश

‘बाजार दर्शन’ श्री जैनेंद्र कुमार द्वारा रचित एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें गहन वैचारिकता और साहित्य सुलभ लालित्य का मणिकांचन संयोग देखा जा सकता है। यह निबंध उपभोक्तावाद एवं बाजारवाद की मूल अंतर वस्तु को समझाने में बेजोड़ है। जैनेंद्र जी ने इस निबंध के माध्यम से अपने परिचित एवं मित्रों से जुड़े अनुभवों को चित्रित किया है कि बाजार की जादुई ताकत कैसे हमें अपना गुलाम बना लेती है। उन्होंने यह भी बताया है कि अगर हम आवश्यकतानुसार बाजार का सदुपयोग करें तो उसका लाभ उठा सकते हैं लेकिन अगर हम जरूरत से दूर बाजार की चमक-दमक में फंस गए तो वह असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल कर हमें सदा के लिए बेकार बना सकता। है। इन्हीं भावों को लेखक ने अनेक प्रकार से बताने का प्रयास किया है।

लेखक बताता है कि एक बार उसका एक मित्र अपनी प्रिय पत्नी के साथ बाजार में एक मामूली-सी वस्तु खरीदने हेतु गए थे लेकिन जब – वे लौटकर आए तो उनके हाथ में बहुत-से सामान के बंडल थे। इस समाज में असंयमी एवं संयमी दोनों तरह के लोग होते हैं। कुछ ऐसे जो बेकार खर्च करते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी संयमी होते हैं, जो फ़िजूल सामान को फ़िजूल समझते हैं। ऐसे लोग अपव्यय न करते हुए केवल आवश्यकतानुरूप खर्च करते हैं। ये लोग ही पैसे को जोड़कर गर्वीले बने रहते हैं। लेखक कहता है कि वह मित्र आवश्यकता से । ज्यादा सामान ले आए और उनके पास रेल टिकट के लिए भी पैसे नहीं बचे। लेखक उसे समझाता है कि वह सामान पर्चेजिंग पावर के ।

अनुपात में लेकर आया है। – बाजार जो पूर्ण रूप से सजा-धजा होता है। वह ग्राहकों को अपने आकर्षण से आमंत्रित करता है कि आओ मुझे लूट ले। ग्राहक सब कुछ भूल जाएँ और बाजार को देखें। बाजार का आमंत्रण मूक होता है जो प्रत्येक के हृदय में इच्छा जगाता है और यह मनुष्य को असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल कर मनुष्य को सदा के लिए बेकार बना देता है। लेखक एक और अन्य मित्र के माध्यम से बताते हैं कि ये मित्र बाजार में दोपहर से पहले गए लेकिन संध्या के समय खाली हाथ वापिस आए।

उन्होंने खाली हाथ आने का यह कारण बताया कि वह सब कुछ खरीदना चाहता था इसीलिए इसी चाह में वह कुछ भी खरीदकर नहीं लाया। बाज़ार में जाने पर इच्छा घेर लेती है जिससे मन में दुख प्रकट होता है। या बाजार के रूप सौंदर्य का ऐसा जादू जो आँखों के रास्ते हृदय में प्रवेश करता है और चुंबक के समान मनुष्य को अपनी तरफ आकर्षित करता है। जेब भरी हो तो बाजार में जाने पर मनुष्य निर्णय नहीं कर पाता कि वह क्या-क्या सामान खरीदे क्योंकि उसे सभी सामान आरामसुख देनेवाले प्रतीत होते हैं लेकिन जादू का असर उतरते ही मनुष्य को फैंसी चीज़ों का आकर्षण कष्टदायक प्रतीत होने लगता है तब वह : दुखी हो उठता है।

मनुष्य को बाजार में मन को भरकर जाना चाहिए क्योंकि जैसे गरमी की लू में यदि पानी पीकर जाएँ तो लू की तपन व्यर्थ हो जाती है। । वैसे ही मन लक्ष्य से भरा हो तो बाजार का आकर्षण भी व्यर्थ हो जाएगा। आँख फोड़कर मनुष्य लोभ से नहीं बच सकता क्योंकि ऐसा: करके वह अपना ही अहित करता है। संसार का कोई भी मनुष्य पूर्ण नहीं है क्योंकि मनुष्य में यदि पूर्णता होती तो वह परमात्मा से अभिन्न महाशून्य बन जाता। अत: अपूर्ण होकर ही हम मनुष्य हैं।

सत्य ज्ञान सदा इसी अपूर्णता के बोध को हममें गहरा करता है तथा सत्य कर्म | सदा इस अपूर्णता की स्वीकृत के साथ होता है।  लेखक एक चूर्ण बेचनेवाले अपने भगत पड़ोसी के माध्यम से कहते हैं कि उन्हें चूर्ण बेचने का कार्य करते बहुत समय हो गया है। लोग : उन्हें चूर्ण के नाम से बुलाते हैं। यदि वे व्यवसाय अपनाकर चूर्ण बेचते तो अब तक मालामाल हो जाते लेकिन वे अपने चूर्ण को अपने-आप ।

पेटी में रखकर बेचते हैं और केवल छह आने की कमाई होने पर बाकी चूर्ण बच्चों को मुफ्त बाँट देते हैं। लेखक बताते हैं कि इस सेठ भगत पर बाजार का जादू थोड़ा-सा भी नहीं चलता। वह जादू से दूर पैसे से निर्मोही बन मस्ती में अपना कार्य करता रहता है। । एक बार लेखक सड़क के किनारे पैदल चला जा रहा था कि एक मोटर उनके पास से धूल उड़ाती गुजर गई। उनको ऐसा लगा कि : – यह मुझपर पैसे की व्यंग्यशक्ति चलाकर गई हो कि उसके पास मोटर नहीं है। लेखक के मन में भी आता है कि उसने भी मोटरवाले। – माँ-बाप के यहाँ जन्म क्यों नहीं लिया। लेकिन यह पैसे की व्यंग्यशक्ति उस चूर्ण बेचनेवाले व्यक्ति पर नहीं चल सकती। – जी लेखक को बाजार चौक में मिले। बाजार पूरा सजा हुआ था लेकिन उसका आकर्षण भगत जी के मन को नहीं भेद सका।

वे बड़े स्टोर चौक बाजार से गुजरते हुए एक छोटे-से पंसारी की दुकान से अपनी ज़रूरत का सामान लेकर चल पड़ते हैं। उनके लिए चाँदनी चौक का – आमंत्रण व्यर्थ दिखाई पड़ता है क्योंकि अपना सामान खरीदने के बाद सारा बाजार उनके लिए व्यर्थ हो जाता है। लेखक अंत में स्पष्ट करता है कि बाजार को सार्थकता वही मनुष्य देता है जो अपनी चाहत को जानता है। लेकिन जो अपनी इच्छाओं को नहीं जानते वे तो अपनी पर्चेजिंग पावर के गर्व में अपने धन से केवल एक विनाशक और व्यंग्य शक्ति ही बाजार को देते हैं। ऐसे मनुष्य । न तो बाज़ार से कुछ लाभ उठा सकते हैं और न बाजार को सत्य लाभ दे सकते हैं। ऐसे लोग सद्भाव के हास में केवल कोरे ग्राहक का । व्यवहार करते हैं। सद्भाव से हीन बाजार मानवता के लिए विडंबना है और ऐसे बाज़ार का अर्थशास्त्र अनीति का शास्त्र है।

बाज़ार दर्शन लेखक परिचय

लेखक-परिचय जीवन परिचय-श्री जैनेंद्र कुमार हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध कथाकार हैं। उनको मनोवैज्ञानिक कथाधारा का प्रवर्तक माना जाता है। इसके साथ-साथ वे एक श्रेष्ठ निबंधकार भी हैं। उनका जन्म सन् 1905 ई० को उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के कौड़ियागंज नामक स्थान पर हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा हस्तिनापुर के जैन गुरुकुल में हुई। उन्होंने वहीं पढ़ते हुए दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात काशी हिंदू विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा हेतु प्रवेश लिया लेकिन गांधी जी के असहयोग आंदोलन से प्रेरित होकर उन्होंने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी और वे गाँधी जी के साथ असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए।

Class 12 Hindi Aroh Chapter 12 Summary बाज़ार दर्शन

वे गांधी जी से अत्यधिक प्रभावित हुए। गांधी जी के जीवन-दर्शन का प्रभाव उनकी रचनाओं में स्पष्ट दिखाई देता है। सन् 1984 ई० में उनकी साहित्य सेवा-भावना के कारण उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने भारत-भारती सम्मान से सुशोभित किया। उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवाओं के कारण पद्मभूषण से अलंकृत किया।

सन् 1990 ई० में ये महान साहित्य सेवी संसार से विदा हो गए। रचनाएँ-जैनेंद्र कुमार जी एक कथाकार होने के साथ प्रमुख निबंधकार भी थे। उन्होंने उच्च कोटि के निबंधों की भी रचना की है। हिंदी कथा-साहित्य को उन्होंने अपनी लेखनी से समृद्ध किया है। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैउपन्यास-परख, अनाम स्वामी, सुनीता, कल्याणी, त्याग-पत्र, जयवर्धन, मुक्तिबोध, विवर्त। कहानी-संग्रह-वातायन, एक रात, दो चिड़िया, फाँसी, नीलम देश की राजकन्या, पाजेब।

निबंध-संग्रह-जड़ की बात, पूर्वोदय, साहित्य का श्रेय और प्रेय, संस्मरण, इतस्ततः, प्रस्तुत प्रश्न, सोच-विचार, समय और हम। साहित्यिक विशेषताएँ-हिंदी कथा-साहित्य में प्रेमचंद के पश्चात जैनेंद्र जी प्रतिष्ठित कथाकार माने जाते हैं। उन्होंने अपने उपन्यासों का विषय भारतीय गाँवों की अपेक्षा नगरीय वातावरण को बनाया है। उन्होंने नगरीय जीवन की मनोवैज्ञानिक समस्याओं का चित्रण किया है।

इनके परख, सुनीता, त्याग-पत्र, कल्याणी में नारी-पुरुष के प्रेम की समस्या का मनोवैज्ञानिक धरातल पर अनूठा वर्णन किया है। जैनेंद्र जी ने अपनी कहानियों में दार्शनिकता को अपनाया है। कथा-साहित्य में उन्होंने मानव मन का विश्लेषण किया है।

यद्यपि जैनेंद्र का दार्शनिक विवेचन मौलिक है लेकिन निजीपन के कारण पाठक में ऊब उत्पन्न नहीं करता। इनकी कहानियों में जीवन से जुड़ी विभिन्न समस्याओं का उल्लेख किया गया है। उन्होंने समाज, धर्म, राजनीति, अर्थनीति, दर्शन, संस्कृति, प्रेम आदि विषयों का प्रतिपादन किया है तथा सभी विषयों से संबंधित प्रश्नों को सुलझाने का प्रयास किया है।

जैनेंद्र जी का साहित्य गांधीवादी चेतना से अत्यंत प्रभावित है जिसका सुष्ठु एवं सहज उपयोग उन्होंने अपने साहित्य में किया है। उन्होंने गाँधीवाद को हृदयंगम करके सत्य, अहिंसा, आत्मसमर्पण आदि सिद्धांतों का अनूठा चित्रण किया है। इससे उनके कथा-साहित्य में राष्ट्रीय चेतना का भाव भी मुखरित होता है। लेखक ने अपने समाज में फैली कुरीतियों शोषण, अत्याचार आदि समस्याओं का डटकर विरोध किया है।

भाषा-शैली-जैनेंद्र जी एक मनोवैज्ञानिक कथाकार हैं। उनकी कहानियों की भाषा-शैली अत्यंत सरल, सहज एवं भावानुकूल है। उनके निबंधों में भी सहज, सरल एवं स्वाभाविक भाषा-शैली को अपनाया गया है। उनके साहित्य में संक्षिप्त कथानक, संवाद, भावानुकूल भाषा-शैली आदि विशेषताएँ सर्वत्र विद्यमान हैं। ‘बाजार दर्शन’ जैनेंद्र जी का एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें गहन वैचारिकता और साहित्य सुलभ लालित्य का मणिकांचन संयोग दृष्टिगोचर होता है। यह लेखक का एक विचारात्मक निबंध है जिसमें उन्होंने रोचक कथात्मक शैली का प्रयोग किया है। उनकी भाषा सहज, सरल, प्रसंगानुकूल है।

लेखक ने खड़ी बोली के साथ उर्दू, फारसी, अंग्रेज़ी, साधारण बोलचाल की भाषाओं का प्रयोग किया है। तत्सम प्रधान | शब्दावली के साथ तद्भव शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। जैसे

(i) अंग्रेज़ी-बंडल, एनर्जी, पर्चेजिंग पावर आदि।
(ii) उर्दू-फ़ारसी-बाजार, करतब, फ़िजूल, शैतान, खूब, हरज, मालूम, नाचीज़, मोहर आदि।
(iii) तत्सम-अतुलित, परिमित, कृतार्थ, अपूर्णता, आशक्त, लोकप्रिय आदि।
(iv) तद्भव-आँख, सामान, सच्चा आदि।

लेखक ने अपने निबंध में विचारात्मक, संवादात्मक, व्यंग्यात्मक आदि शैलियों का प्रयोग किया है। उनकी संक्षिप्त संवाद-शैली अत्यंत रोचक एवं प्रभावपूर्ण है। जैसे

मैंने पूछा-कहाँ रहे?
बोले-बाजार देखते रहे।
मैंने कहा-बाजार को क्या देखते रहे?
बोले-क्यों? बाजार!
तब मैंने कहा-लाए तो कुछ नहीं!
बोले-हाँ, पर यह समझ न आता था कि न लूँ तो क्या?

वस्तुतः जैनेंद्र कुमार जी हिंदी साहित्यकार के श्रेष्ठ निबंधकार थे। उनका हिंदी साहित्य में विशेष योगदान है जिसके फलस्वरूप वे एक विशिष्ट स्थान के योग्य हैं। उनका ‘बाजार दर्शन’ भाषा-शैली की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण निबंध है।