Class 12 Hindi Vitan Chapter 3 Summary अतीत में दबे पाँव

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अतीत में दबे पाँव Summary Notes Class 12 Hindi Vitan Chapter 3

अतीत में दबे पाँव पाठ का सारांश

“अतीत में दबे पाँव’ साहित्यकार ओम थानवी’ द्वारा विरचित एक यात्रा-वृतांत है। वे पाकिस्तान स्थित सिंधु घाटी सभ्यता के दो महानगरों। मोहनजोदड़ो (मुअनजोदड़ो) और हड़प्पा के अवशेषों को देखकर अतीत के सभ्यता और संस्कृति की कल्पना करते हैं। अभी तक जितने भी पुरातात्विक प्रमाण मिले उनको देखकर साहित्यकार अपनी कल्पना को साकार करने की चेष्टा करते हैं।

लेखक का मानना है कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा प्राचीन भारत के ही नहीं बल्कि विश्व के दो सबसे पुराने और योजनाबद्ध तरीके से बसे शहर माने जाते हैं। वे मोहनजोदड़ो को ताम्रकाल का सबसे बड़ा शहर मानते हैं। लेखक के अनुसार मोहनजोदड़ो सिंधु घाटी सभ्यता का केंद्र है और शायद अपने जमाने की राजधानी जैसा। आज भी इस आदिम शहर की सड़कों और गलियों में सैर की जा सकती है। यह शहर अब भी वहीं है, जहाँ कभी था। आज भी वहाँ के टूटे घरों की रसोइयों में गंध महसूस की जा सकती है।

आज भी शहर के किसी सुनसान रास्ते पर खड़े होकर बैलगाड़ी की रुन-झुन की आवाजें सुनी जा सकती हैं। खंडहर बने घरों की टूटी सीढ़ियाँ अब चाहे कहीं न ले जाती हों, चाहे वे आकाश की ओर अधूरी रह गई हों, लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े होकर यह अनुभव किया जा सकता है कि आप दुनिया की छत पर चढ़ गए हैं। वहाँ चढ़कर आप इतिहास को नहीं बल्कि उससे कहीं आगे देख रहे हैं।

मोहनजोदड़ो में सबसे ऊंचा चबूतरा बौद्ध स्तूप है। अब यह केवल मात्र एक टीला बनकर रह गया है। इस चबूतरे पर बौद्ध भिक्षुओं के कमर भी हैं। लेखक इसे नागर भारत का सबसे पुराना लैंडस्केप मानते हैं। इसे देखकर रोमांचित होना स्वाभाविक है। यह स्तूपवाला चबूतरा शहर के एक खास हिस्से में स्थित है। इस हिस्से को पुरातत्व के विद्वान ‘गढ़’ कहते हैं। ये ‘गढ़’ कभी-न-कभी राजसत्ता या धर्मसत्ता के केंद्र रहे होंगे ऐसा भी माना जा सकता है। इन शहरों की खुदाई से यह स्पष्ट हो जाता है कि बाकी बड़ी इमारतें, सभा-भवन, ज्ञानशाला सभी अतीत की चीजें कही जा सकती है परंतु यह ‘गढ़ उस द्वितीय वास्तुकला कौशल के बाकी बचे नमूने हैं।

मोहनजोदड़ो शहर की संरचना नगर नियोजन का अनूठा प्रमाण है, उदाहरण है। यहाँ की सड़कें अधिकतर सीधी हैं या फिर आडी हैं। आज के वास्तुकार इसे ‘ग्रिड प्लान’ कहते हैं। आज के नगरों के सेक्टर कुछ इसी नियोजन से मेल खाते हैं। आधुनिक परिवेश के इन सेक्टरवादी नागरिकों में रहन-सहन को लेकर नीरसता आ गई है। प्रत्येक व्यक्ति अपने-आप में खोया हुआ है, दुनियादारी के अपनत्व में उसे विश्वास नहीं रहा है।

मोहनजोदड़ो शहर में जो स्तूप मिला है उसके चबूतरे के गढ़ के पीछे ‘उच्च’ वर्ग की बस्ती है। इस बस्ती के पीछे पाँच किलोमीटर दूर सिंध नदी बहती है। अगर इन उच्च वर्गीय बस्ती से दक्षिण की तरफ़ नजर दौड़ाएँ तो दूर तक खंडहर, टूटे-फूटे घर दिखाई पड़ते हैं। ये टूटे-फूटे घर शायद कारीगरों के रहे होंगे। चूकिनिम्न वर्ग के घर इतनी मजबूत सामग्री के नहीं बने होंगे शायद इसीलिए उनके अवशेष भी. उनकी गवाही नहीं देते अर्थात इस पूरे शहर में गरीब बस्ती कहाँ है उसके अवशेष भी नहीं मिलते। टीले की दाई तरफ़ एक लॉबी दिखती है। इसके आगे एक महाकुंड है। इस गली को इस धरोहर के प्रबंधकों ने ‘देव मार्ग’ कहा है।

यह महाकुंड चालीस फुट लंबा और पच्चीस फुट चौड़ा है। यह उस सभ्यता में सामूहिक स्नान के किसी अनुष्ठान का प्रतीक माना जा सकता है। इसकी गहराई रगत फुट है तथा उत्तर और दक्षिण में सीढ़ियाँ उतरती हैं। इस महाकुंड के तीन तरफ़ साधुओं के कक्ष बने हुए हैं उत्तर में एक पंक्ति में आठ स्नानघर हैं। यह वास्तुकला का एक नमूना ही कहा जाएगा क्योंकि इन सभी स्नानघरों के मुँह एक-दूसरे के सामने नहीं खुलते। कुंड के तल में पक्की ईंटों का जमाव है ताकि कुंड का पानी रिस न सके और अशुद्ध पानी कुंड में न आ सके। कुंड में पानी भरने के लिए पास ही एक कुआँ है। कुंड से पानी बाहर निकालने के लिए नालियाँ बनी हुई हैं। ये नालियाँ पक्की ईंटों से बनी हैं तथा ईंटों से ढकी हुई भी हैं। पुरातात्विक वैज्ञानिकों का मानना है कि पानी निकासी का ऐसा सुव्यवस्थित बंदोबस्त इससे पहले इतिहास में दूसरा नहीं है।

महाकुंड के उत्तर-पूर्व में एक बहुत लंबी इमारत के खंडहर बिखरे पड़े हैं। इस इमारत के बीचोंबीच एक खुला आँगन है। इसके तीन तरफ बरामदे हैं। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि इसके साथ कभी छोटे-छोटे कमरे भी होंगे। ये कमरे और बरामदे धार्मिक अनुष्ठानों में ज्ञानशालाओं का काम देते थे। इस दृष्टि से देखें तो इस इमारत को एक ‘धार्मिक महाविद्यालय’ कहा जा सकता है। गढ़ से थोड़ा आगे । कुछ छोटे टीलों पर बस्तियाँ हैं। इन बस्तियों को ‘नीचा नगर’ कहकर पुकारा जाता है।

– पूर्व में बसी बस्ती ‘अमीरों की बस्ती’ है। आधुनिक युग में अमीरों की बस्ती पश्चिम में मानी जाती है। यानि कि बड़े-बड़े घर, चौड़ी सड़कें, ज्यादा कुएँ। मोहनजोदड़ो में यह उलटा था। शहर के बीचोंबीच एक तैंतीस फुट चौड़ी लंबी सड़क है। मोहनजोदड़ो में बैलगाड़ी होने के प्रमाण मिले हैं शायद इस सड़क पर दो बैलगाड़ियाँ एक साथ आसानी से आ-जा सकती हैं। यह सड़क बाजार तक जाती है। इस सड़क के दोनों ओर घर बसे हुए हैं। परंतु इन घरों की पीठ सड़कों से सटी हुई हैं। कोई भी घर सड़क पर नहीं खुलता। लेखक के अनुसार,
“दिलचस्प संयोग है कि चंडीगढ़ में ठीक यही शैली पचास साल पहने लू काबूजिए ने इस्तेमाल की।” चंडीगढ़ का कोई घर सड़क की ।

तरफ़ नहीं खुलता। मुख्य सड़क पहले सेक्टर में जाती है फिर आप किसी के घर जा सकते हैं। शायद चंडीगढ़ के वास्तुकार का—जिए ने यह सीख मोहनजोदड़ो से ही ली हों? ऐसा भी अनुमान लगाया जा सकता है। शहर के बीचोंबीच लंबी सड़कें और दोनों तरफ़ समांतर ढकी हुई नालियाँ हैं। बस्ती में ये नालियाँ इसी रूप में हैं। प्रत्येक घर में एक स्नानघर भी है। घर के अंदर से मैले पानी की नालियाँ बाहर हौदी तक आती हैं और फिर बड़ी नालियों में आकर मिल जाती हैं।

कहीं-कहीं वे खुली हो सकती हैं परंतु अधिकतर वे ऊपर से ढकी हुई हैं। इस प्रकार सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मोहनजोदड़ो के नागरिक स्वास्थ्य के प्रति कितने सचेत थे। शहर के कुएँ भी दूर से ही अपनी ओर प्रत्येक व्यक्ति का ध्यान खींचते हैं। ये कुएँ पक्की-पक्की ईंटों के बने हुए हैं। पुरातत्व विद्वानों के अनुसार केवल मोहनजोदड़ो में ही सात सौ के लगभग कुएँ हैं। इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यता संसार में पहली ज्ञात संस्कृति है जो कुएँ खोदकर भू-जल तक पहुँची। लेखक यह भी प्रश्न उठाते हैं कि नदी, कुएँ, : कुंड स्नानघर और बेजोड़ पानी निकासी को क्या हम सिंधु घाटी की सभ्यता को जल संस्कृति कह सकते हैं।

मोहनजोदड़ो की बड़ी बस्ती में घरों की दीवारें ऊँची और मोटी हैं। मोटी दीवार से यह अर्थ लगाया जा सकता है कि यह दो मंजिला घर होगा। इन घरों की एक खास बात यह है कि सामने की दीवार में केवल प्रवेश द्वार है कोई खिड़की नहीं है। ऊपर की मंजिल में खिड़कियाँ हैं। कुछ बहुत बड़े घर भी हैं शायद इनमें कुछ लघु उद्योगों के कारखाने होंगे। ये सभी छोटे-बड़े घर एक लाइन में हैं। अधिकतर घर लगभग तीस गुणा तीस फुट के हैं। सभी घरों की वास्तुकला लगभग एक जैसी है। एक बहुत बड़ा घर है जिसमें दो आँगन और बीस कमरे हैं। इस घर को ‘मुखिया’ का घर कहा जा सकता है। घरों की खुदाई से एक दाढ़ीवाले याजक-नरेश’ और एक प्रसिद्ध ‘नर्तकी’ की मूर्तियाँ भी मिली हैं।

‘नर्तकी’ की मूर्ति अब दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी हुई है। यहीं पर एक बड़ा घर भी है जिसे ‘उपासना केंद्र’ भी समझा जा सकता है। इसमें आमने-सामने की दो चौड़ी सीढ़ियाँ ऊपर की मंजिल की ओर जाती हैं। ऊपर की मंजिल अब बिलकुल ध्वस्त हो चुकी है। नगर के पश्चिम में एक ‘रंगरेज का कारखाना’ भी मिला है जिसे अब सैलानी बड़े चाव से देखते हैं। घरों के बाहर कुछ कुएँ सामूहिक प्रयोग के लिए हैं। शायद ये कुएँ कर्मचारियों और कारीगरों के लिए घर रहे होंगे।

बड़े घरों में कुछ छोटे कमरे हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि शहर की आबादी काफ़ी रही होगी। एक विचार यह भी हो सकता है कि ऊपर की मंजिल में मालिक और नीचे के घरों में नौकर-चाकर रहते होंगे। कुछ घरों में सीढ़ियाँ नहीं हैं शायद इन घरों में लकड़ी की सीढ़ी रही है जो बाद में नष्ट हो गई होगी। छोटे घरों की बस्ती में संकरी सीढ़ियाँ हैं। इन सीढ़ियों के पायदान भी ऊँचे हैं। शायद ऐसा जगह की कमी के कारण होता होगा।

लेखक ने अपनी यात्रा के समय जब यह ध्यान दिया कि खिड़कियों और दरवाजों पर छज्जों के निशान नहीं हैं। गरम इलाकों में ऐसा होना आम बात होती है। शायद उस समय इस इलाके में इतनी कड़ी धूप न पड़ती हो। यह तथ्य भी पूरी तरह से स्थापित हो चुका है कि उस समय अच्छी खेती होती थी। यहाँ लोग खेतों की सिंचाई कुओं से करते थे। नहर के प्रमाण यहाँ नहीं मिलते शायद लोग वर्षा के पानी पर अधिक निर्भर रहते होंगे। बाद में वर्षा कम होने लगी हो और लोगों ने कुओं से अधिक पानी निकाला होगा। इस प्रकार भू-जल का स्तर काफ़ी नीचे चला गया हो। यह भी हो सकता है कि पानी के अभाव में सिंधु घाटी के वासी यहाँ से उजड़कर कहीं चले गए हों और सिंधु घाटी की समृद्ध सभ्यता इस प्रकार नष्ट हो गई हो। लेखक के इस अनुमान से इनकार नहीं किया जा सकता।

मोहनजोदड़ो के घरों और गलियों को देखकर तो अपने राजस्थान का भी खयाल हो आया। राजस्थान और सिंध-गुजरात की दृश्यावली । एक-सी है। मोहनजोदड़ो के घरों में टहलते हुए जैसलमेर के मुहाने पर बसे पीले पत्थरों के खूबसूरत गाँव की याद लेखक के जहन में ताजा हो आई। इस खूबसूरत गाँव में हरदम गरमी का माहौल व्याप्त है। गाँव में घर तो है परंतु घरों में लोग नहीं हैं। कहा जाता है कि कोई डेढ़ सौ साल पहले राजा के साथ तकरार को लेकर इस गाँव के स्वाभिमानी नागरिक रातोंरात अपना घर-बार छोड़कर चले गए थे। बाद में इन घरों के दरवाजे, खिड़कियाँ लोग उठाकर ले गए थे। अब ये घर खंडहर में परिवर्तित हो गए हैं।

परंतु ये घर ढहे नहीं। इन घरों की खिड़कियों, दरवाजों और दीवारों को देखकर ऐसा लगता है जैसे कल की ही बात हो। लोग चले गए लेकिन वक्त वहीं रह गया। खंडहरों ने उसे वहाँ रोक लिया हो। जैसे सुबह गए लोग शाम को शायद वापस लौट आएँ।। मोहनजोदड़ो में मिली ठोस पहियोंवाली बैलगाड़ी को देखकर लेखक को अपने गाँव की बैलगाड़ी की याद आ गई जिसमें पहले दुल्हन । बैठकर ससुराल आया करती थी। बाद में इन गाड़ियों में आरेवाले पहिए और अब हवाई जहाज से उतरे हुए पहियों का प्रयोग होने लगा।

Class 12 Hindi Vitan Chapter 2 Summary जूझ

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जूझ Summary Notes Class 12 Hindi Vitan Chapter 2

जूझ पाठ का सारांश

‘जूझ’ मराठी के सुविख्यात कथाकार डॉ. आनंद यादव का बहुचर्चित एवं उल्लेखनीय आत्मकथात्मक उपन्यास है। इस पाठ में उपन्यास के कुछ अंश मात्र ही उद्धृत किए गए हैं। यह उपन्यास साहित्य अकादमी पुरस्कार (1990) से सम्मानित किया जा चुका है। ‘जूझ’ एक किशोर द्वारा भोगे हुए गवई (ग्रामीण) जीवन के खुरदरे यथार्थ और आंचलिक परिवेश की जीवंत गाथा है। अपने बचपन को याद करते हुए लेखक कहता है कि मेरा मन पाठशाला जाने के लिए बेचैन रहता था। परंतु मेरे पिता मुझे पाठशाला नहीं भेजना चाहते थे। वे स्वयं कोई काम न करके खेत का सारा काम मुझसे करवाते थे। इसलिए उन्हें मेरा पाठशाला जाना बिलकुल भी पसंद नहीं था।

एक दिन जब लेखक साथ कंडे थापने में अपनी माँ की सहायता कर रहा था तो वह अपनी माँ से पाठशाला जाने की इच्छा व्यक्त करता है। परंतु माँ भी आनंदा (लेखक) के पिता से बहुत डरती थी इसलिए वह अपने बेटे का खुला समर्थन नहीं कर सकी। लेखक स्वयं अपनी माँ से कहता है कि खेत के लगभग वे सभी काम खत्म हो गए जो मैं कर सकता था इसलिए तू मेरे पढ़ने की बात दत्ता जी राव सरकार से क्यों नहीं करती। चूंकि लेखक के पिता दत्ता जी राव के सामने नतमस्तक हो जाते थे और उनकी कोई भी बात मानने के लिए। बाध्य थे इसलिए लेखक को लगता है कि दत्ता जी राव ही मेरे पाठशाला का रास्ता खोल सकते हैं।

रात के समय माँ-बेटा दोनों दत्ता जी राव के घर अपनी फ़रियाद लेकर जाते हैं। माँ दत्ता जी राव को सब कुछ बता देती है कि वह (पिता) सारा दिन बाजार में रखमाबाई के पास गुजार देता है, और खेतों में काम आनंदा को करना पड़ता है। यह बात सुनकर दत्ता जी राव चिढ़ गए और उन्होंने लेखक के पिता को समझाने का आश्वासन देकर दोनों को घर भेज दिया।

दत्ता जी राव के बाड़े का बुलावा दादा (पिता जी) के लिए सम्मान की बात थी इसलिए बड़ी खुशी से दादा दत्ता जी राव के बाड़े में जाते हैं। आधे घंटे बाद बुलाने के बहाने लेखक भी वहीं चला जाता है। दत्ता जी राव लेखक को भी वहीं बैठा लेते हैं। बातचीत में दत्ता -जी राव लेखक से पूछते हैं, “कौन सी कक्षा में पढ़ता है रे तू?” लेखक कहता है, “जी पाँचवीं में पढ़ता था किंतु अब नहीं जाता हूँ। वार्तालाप में लेखक दत्ता जी राव को यह बता देता है कि मुझे पाठशाला दादा नहीं जाने देते। दत्ता जी ने दादा पर खूब गुस्सा किया। “तू लुगाई (पत्नी) और बच्चों को काम में जोत कर किस तरह खुद गाँवभर में खुले साँड की तरह घूमता है।”

अंत में दत्ता जी आनंदा (लेखक) को सुबह पाठशाला.जाने को कहते हैं। दादा मेरे (आनंद) के पाठशाला जाने पर मान तो गए परंतु पाठशाला ग्यारह बजे होती। है इसलिए दिन निकलते ही खेत पर हाजिर होने के बाद खेत से सीधे पाठशाला जाना, सवेरे पाठशाला जाने के लिए बस्ता खेत में ही ले आना, छुट्टी होते ही सीधा खेत में आना और जब खेत में काम अधिक हो तो पाठशाला से गैर-हाजिर भी हो जाना आदि आदेश भी देते. हैं। आनंदा दादा की सारी बातें मंजूर कर लेता है। उसका मन आनंद से उमड़ रहा था। परंतु दादा का मन आनंदा को पाठशाला भेजने के लिए अभी भी तैयार नहीं था। वे फिर कहते हैं, “हाँ। अगर किसी दिन खेत में नहीं आया तो गाँव में जहाँ मिलेगा। वहीं कुचलता हूँ कि नहीं-तुझे। तेरे ऊपर पढ़ने का भूत सवार हुआ है। मुझे मालूम है, बलिस्टर नहीं होनेवाला है तू? आनंदा गरदन नीची करके खाना खाने ।

लगा था। अगले दिन आनंदा का पाठशाला में जाना फिर शुरू हो गया। वह गरमी-सरदी, हवा-पानी, भूख-प्यास आदि की बिलकुल भी परवाह नहीं करता था। खेतों के काम की चक्की में पिसते रहने से अब उसे छुटकारा मिल गया था। खेतों के काम की चक्की की अपेक्षा पाठशाला में मास्टर की छड़ी की मार आनंदा को अधिक अच्छी लगती थी। वह इस मार को भी मजे में सहन कर रहा था। गरमी की कड़क दोपहरी का समय पाठशाला की छाया में व्यतीत हो गया। आनंदा (लेखक) की पांचवीं कक्षा में उसके पहचान के दो ही लड़के थे। उसकी पहचान के सभी लड़के अगली कक्षा में चले गए थे। अपनी उम्र से कम उम्र के बच्चों के साथ कक्षा में बैठना आनंदा को बुरा लग रहा था। पुरानी पुस्तकों को वह लट्ठे के बने बस्ते में ले गया था। लेकिन वे अब पुरानी हो चुकी थीं।

आनंदा (लेखक) की कक्षा में एक शरारती लडका ‘चहवाण’ भी था। वह सदा आनंदा की खिल्ली उडाया करता था। वह उसके मैले गमछे को कक्षा में इधर-उधर फेंकने लगता है इतने में मास्टर जी आ गए और गमछा टेबल पर ही रह गया। आनंदा की धड़कन बढ़ गई और उसका दिल धक-धक करने लगा। पूछता से मास्टर को जब यह पता चला कि यह शरारत चहवाण ने की है तो वे उसे खूब लताड़ते हैं। लेखक के बारे में पूछने के बाद उन्होंने वामन पंडित की एक कविता पढ़ाई छुट्टी के बाद भी कई शरारती लड़कों ने उसकी धोती कई बार खींची थी। आनंदा का मन उदास हो गया क्योंकि कक्षा में कोई भी अपना नहीं था परंतु आनंदा ने पाठशाला जाना बंद नहीं किया।

पाठशाला में मंत्री नामक मास्टर जी गणित पढ़ाया करते थे। वे प्रायः छड़ी का प्रयोग नहीं करते थे बल्कि कमर में घुसा लगाते थे। शरारती बच्चे उनके सामने उधम नहीं मचा सकते थे। वसंत पाटिल नाम का एक लड़का शरीर से दुबला-पतला, किंतु बहुत होशियार था। उसके सवाल अकसर ठीक हुआ करते थे। कक्षा में उसका खूब सम्मान था। यह वसंत पाटिल आनंदा से उम्र में छोटा था। क्योंकि आनंदा ने पाठशाला छोड़कर ग़लती की थी परंतु फिर भी मास्टर जी को कक्षा की मॉनीटरी आनंदा को ही सौंपनी पड़ी। आनंदा अब पहले से ज्यादा पढ़ाई करने लगा था। हमेशा कुछ न कुछ पढ़ता रहता था।

अब गणित के सवाल उसकी समझ में आने लगे थे। वह वसंत पाटिल के साथ दूसरी तरफ़ से बच्चों के सवाल जाँचने लगा। फलस्वरूप आनंदा और वसंत पाटिल की दोस्ती जमने लगी थी। मास्टर जी अब लेखक को ‘आनंदा’ कहकर पुकारने लगे थे। आनंदा की मास्टरों के साथ आत्मीयता बढ़ गई और पाठशाला में उसका विश्वास भी बढ़ गया। पी पाठशाला में न० वा० सौंदलगेकर मराठी के मास्टर थे। जब वे मराठी में कोई कविता पढ़ाते तो स्वयं भी उसमें खूब रम जाते थे।

उनके पास सुरीला गला, छंद की बढ़िया चाल और रसिकता सब कुछ था। उन्हें मराठी की कविताओं के साथ अंग्रेजी की कविताएँ भी कंठस्थ थीं। वे कविता को सुनाते-सुनाते अभिनय भी किया करते थे। वे स्वयं भी कविता लिखा करते थे। जब मास्टर जी अपनी लिखी कोई कविता सुनाते थे तो आनंदा उन्हें तल्लीनता के साथ सुना करता था। वह अपनी आँखों और प्राणों की सारी शक्ति लगाकर दम रोककर मास्टर जी के हाव-भाव, चाल, गति और रस का आनंद लेता था।

जब आनंदा खेत में काम करता था तो भी मास्टर जी के हाव-भाव, यति-गति और आरोह-अवरोह के अनुसार ही गाया करता था। वह कविता गाने के साथ-साथ अभिनय भी करने लगा था। पानी से क्यारियाँ कब भर जाती थीं उसे पता ही नहीं चलता था। पहले आनंदा को अकेलापन कचोटता था परंतु अब वह कविता गाकर अपने अकेलेपन को खत्म कर सकता था। अब वह अपने आप से ही खेलने लगा था बल्कि अब उसे अकेलापन अच्छा लगने लगा था क्योंकि अकेलेपन में वह कविताएँ गाकर नाचता भी था और अभिनय भी करता था।

अब वह कुछ अपनी भी कविताएँ बनाने लगा। एक बार तो मास्टर जी के कहने पर उसने बड़ी कक्षा के बच्चों के सामने कविता सुनाई थी। इस तरह आनंदा के अब कुछ नए पंख निकल आए थे। वह अपने मराठी-मास्टर के घर से काव्य-संग्रह लाकर पढ़ता था। अब आनंदा को भी लगने लगा था कि वह खेतों और गाँव के दृश्यों को देखकर कविता लिख सकता है। वह भैंस चराते धराते फ़सलों और जंगली फूलों पर तुकबंदी कर कविता लिखने लगा था। जब किसी रविवार को कोई कविता बन जाती तो सोमवार को मास्टर जी को दिखाता था। मास्टर जी आनंदा को शाबाशी दिया करते थे। मास्टर जी यह भी बताते थे कि भाषा, छंद, लय, अलंकार और शुद्ध लेखन कविता को सुंदर बना देते हैं। मास्टर जी की ये सभी बातें उसे मास्टर जी के और नजदीक ले आई। । अब वह शब्दों के नशे में डूबने लगा था।

Class 12 Hindi Vitan Chapter 1 Summary सिल्वर वैडिंग

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सिल्वर वैडिंग Summary Notes Class 12 Hindi Vitan Chapter 1

सिल्वर वैडिंग पाठ का सारांश

‘सिल्वर वैडिंग’ मनोहर श्याम जोशी की एक प्रमुख कहानी है। लेखक ने इस कहानी में सेक्शन ऑफिसर वी० डी० (यशोधर) पंत के चरित्र-चित्रण के माध्यम से आधुनिक पारिवारिक परिस्थितियों को प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया गया है। यशोधर पंत अपने ऑफिस में आखिरी फाइल को लाल फीता बाँधकर अपनी घड़ी के अनुसार जिसमें पाँच बजकर तीस मिनट हो रहे हैं, आज की छुट्टी करते हैं। उनके नीचे काम करने वाले कर्मचारी उनकी वजह से पाँच बजने के बाद भी दफ्तर में बैठने के लिए मजबूर हैं। उनकी यह आदत है कि वे अपने कर्मचारियों की थकान दूर करने के लिए कोई मनोरंजक बात जरूरी करते हैं। यह आदत उन्हें अपने आदर्श कृष्णानंद (किशनदा) पांडे से परंपरा में मिली है।।

यशोधर पंत बहुत ही गंभौर, काम के प्रति ईमानदार और मिलनसार व्यक्ति हैं। कई बार छोटे कर्मचारियों द्वारा की गई ग़लत बात को भी वे हँसी में उड़ा देते हैं। दफ्तर की घड़ी में पाँच बजकर पच्चीस मिनट होते हैं तो वे दफ्तर के अन्य कर्मचारियों की सुस्ती पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि ‘आप लोगों को देखादेखी सेक्शन की घडी भी सुस्त हो गई है। इसी बात को लेकर वे बहस भी करते हैं और हँसते भी हैं। यह उनको ससुराल से शादी में मिली थी। बातों-बातों में यह पता चलता है कि यशोधर पंत की शादी 6 फरवरी, 1947 को हुई थी। सभी कर्मचारी यशोधर को शादी की बधाई देते हैं। एक कर्मचारी चहककर कहता है “मैनी हैप्पी रिटर्नज़ ऑफ़ द डे सर! आज तो आपका ‘सिल्वर वैडिंग’ है। शादी। के पच्चीस साल पूरे हो गए हैं।” सेक्शन के सभी कर्मचारियों की जिद्द पर यशोधर बाबू उन्हें दस-दस के तीन नोट निकालकर देते हैं परंतु इस चाय-पार्टी में स्वयं शामिल नहीं होते। उनका मानना है कि उनके साथ बैठकर चाय-पानी और गप्प करने में वक्त बर्बाद करना किशनदा की परंपरा के विरुद्ध है।

यशोधर पंत मूलतः अल्मोड़ा के रहने वाले हैं। उन्होंने वहीं के रेम्जे स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की थी। मैट्रिक के पश्चात वे पहाड़ से उतरकर दिल्ली आ गए थे। दिल्ली में उन्होंने किशनदा के घर पर शरण ली थी। किशनदा कुँवारे थे और पहाड़ से आए हुए कितने ही लड़के ठीक ठिकाना होने से पहले उनके यहाँ रह जाते थे। वहाँ वे सभी मिलकर पकाते और खाते थे। जिस समय यशोधर दिल्ली आये थे उस समय उनकी उम्र सरकारी नौकरी के लिए कम थी। जब तक नौकरी के लिए सही उम्र हो यशोधर किशनदा के यहाँ रसोइया बनकर रहे। बाद में किशनदा ने अपने ही नीचे यशोधर को नौकरी दिलवाई और दफ्तरी कार्य में उनका मार्गदर्शन किया।

आजकल यशोधर दफ्तर पैदल आने-जाने लगे हैं। उनके बच्चे नहीं चाहते थे कि उनके पिता साइकिल पर दफ्तर जाएँ क्योंकि उनके बच्चे अब आधुनिक युवा हो गए हैं। बच्चे चाहते हैं कि पिता जी स्कूटर ले लें। लेकिन पिता जी को स्कूटर निहायत बेहुदा सवारी मालूम होती है और कार वे अभी लेने की स्थिति में नहीं थे। दफ्तर से आते समय यशोधर बाबू प्रतिदिन बिरला मंदिर जाने लगे। वहीं उद्यान में बैठकर कोई प्रवचन सुनते तथा स्वयं भी प्रभु का ध्यान लगाने लगे। बच्चों और पत्नी को यह बात बहुत अखरती थी। सिद्धांत के धनी किशनदा की भाँति यशोधर बाबू भी इस आलोचना को अनसुना कर देते हैं। बिरला मंदिर से पहाड़गंज आते समय वे घर के लिए साग-सब्जी खरीद लाते हैं। किसी से अगर मिलना भी है तो वे इस समय मिलते हैं। घर वे आठ बजे से पहले नहीं पहुँचते। घर लौटते ।

समय उनकी निगाह उस स्थान पर पड़ती है जहाँ कभी किशनदा का तीन बेडरूम वाला क्वार्टर हुआ करता था और जिस पर इन दिनों एक छह मंजिला इमारत बनाई जा रही है। यशोधर बाबू को बहुत बुरा लगता है। यशोधर बाबू के घर देर से लौटने का बड़ा कारण यह है कि पिछले कई वर्षों से यशोधर बाबू का अपनी पत्नी और बच्चों से छोटी-छोटी बातों को लेकर अक्सर मतभेद होने लगा है और इसी वजह से वे अब घर जल्दी लौटना पसंद नहीं करते। जब बच्चे छोटे थे, तब वे उनकी पढ़ाई-लिखाई में मदद किया करते थे।

अब बड़ा लड़का भूषण एक प्रमुख विज्ञापन संस्था में नौकरी करने लगा है। उसे वहाँ डेढ़ हजार प्रति मासिक वेतन मिलता है जबकि यशोधर बाबू रिटायरमेंट पर पहुँचकर ही इतना वेतन पा सके हैं। दूसरा बेटा दूसरी बार आई०ए०एस० की परीक्षा की तैयारी कर रहा है। यशोधर बाबू के लिए यह समझ सकना मुश्किल हो रहा है कि जब पिछले वर्ष उसका नाम ‘एलाइड

सर्विसिज’ की सूची में आया था, तब उसने ‘ज्वाइन’ करने से क्यों इंकार कर दिया था ? उनका तीसरा बेटा स्कालरशिप लेकर अमेरिका स चला गया है। उनकी एकमात्र बेटी को कोई भी वर पसंद नहीं आ रहा है तथा वह सभी प्रस्तावित वर अस्वीकार कर चुकी है। यशोधर बाबू अपने बच्चों की तरक्की से खुश तो हैं परंतु कभी-कभी उन्हें ऐसा भी अनुभव होता है कि यह खुशहाली भी किस काम की जो अपनों में भी परायापन पैदा कर देती है।

जब उनके बच्चे गरीब रिश्तेदारों की उपेक्षा करते हैं तो उन्हें बहुत बुरा लगता है। उनकी पत्नी अपने मूल संस्कारों से किसी तरह भी आधुनिक नहीं है फिर भी मातृसुलभ मजबूरी में उन्हें अपने बच्चों की नज़र में आधुनिक बनना पड़ा। पत्नी को यह मलाल है कि संस्कारों को निबाहने के कारण उन्हें परिवार के कार्यों के बोझ तले दबना पड़ा है। उसकी दृष्टि में ये सब पारिवारिक संस्कार अब ढोंग और ढकोसले हो गए हैं। यशोधर बाबू पत्नी की इसी आधुनिकता का कई बार मज़ाक भी उड़ा देते हैं, परंतु असल बात तो यह है कि तमाशा तो स्वयं उनका ही बन रहा है। कई बार यशोधर बाबू को लगता है कि वे भी किशनदा की तरह घर-गृहस्थी का यह सब बवाल छोड़कर जीवन को समाज के लिए समर्पित कर देते तो ज़्यादा अच्छा रहता।

उनको यह भी ध्यान है कि किशनदा का बुढ़ापा ज्यादा सुखी नहीं रहा। कुछ साल वे राजेंद्र नगर में किराए पर रहे और फिर अपने गाँव लौट गए जहाँ साल भर बाद उनकी मौत हो गई। जब यशोधर बाबू ने उनकी मृत्यु का कारण पूछा तो किसी ने यही जवाब दिया, “जो हुआ होगा।” यान पता नहीं क्या हुआ? यशोधर बाबू यह भी स्वीकार करते हैं कि उनके बीवी-बच्चे उनसे अधिक समझदार और सुलझे हुए हैं।

बच्चों को पिता जी की इस गलती का अफसोस है कि अब्बा ने डी० डी० ए० फ्लैट के लिए पैसा न भर कर बहुत बड़ी भूल की है परंतु यशोधर बाबू को किशनदा की यह उक्ति अधिक ठीक लगती है कि ‘मूर्ख लोग घर बनाते हैं, सयाने उनमें रहते हैं।’ जब तक सरकारी नौकरी तब तक सरकारी क्वार्टर। रिटायर होने पर गाँव का पुश्तैनी घर। परंतु यशोधर बाबू का पुश्तैनी घर टूट-फूट कर खंडहर बन चुका होगा, यह भी वे खूब जानते हैं।

बिरला मंदिर में प्रवचन सुनते समय जब जनार्दन शब्द उनके कानों में पड़ा तो उन्हें अपने जीजा जनार्दन जोशी की याद आ गई। आजकल उनकी तबीयत ठीक नहीं है और वे उन्हें मिलने के लिए अहमदाबाद जाना चाहते हैं। जीजा जी का हाल-चाल जानना वे अपना कर्तव्य समझते हैं। बच्चों से भी वे ऐसी अपेक्षा रखते हैं कि वे भी पारिवारिकता के प्रति रुचि लें, परंतु पत्नी और बच्चों को यह बात मूर्खतापूर्ण लगती है। हद तो तब हो गई जब कमाऊ बेटे ने यहाँ कहा कि ‘आपको बुआ के यहाँ भेजने के लिए पैसे मैं तो नहीं दूंगा।’ जब भी यशोधर बाबू कोई काम करते थे तो किशनदा से सलाह ज़रूर लिया करते थे और वे अपेक्षा अपने बच्चों से भी रखते हैं, परंतु बच्चे कहते हैं “अब्बा, आप तो हद करते हैं, जो बात आप जानते ही नहीं आपसे क्यों पूछे?”

यशोधर बाबू को यह अनुभव होने लगा था कि बच्चे अब उनके अनुकूल नहीं सोचते। इसलिए बच्चों का यह प्रवचन सुनकर के सब्जी मंडी चले जाते हैं। वे सोचते जा रहे थे कि उन्हें भी अच्छा लगता अगर उनके बेटे बड़े होने पर अपनी ओर से यह प्रस्ताव रखते कि दूध लाना, राशन लाना, सी० जी० एच० एस० डिस्पेंसरी से दवा लाना, सदर बाजार जाकर दालें लाना, डिपो से कोयला लाना आदि ये सब काम आप छोड़ दें, अब हम कर दिया करेंगे। एक-दो बार उन्होंने बच्चों से कहा भी तो घर में कुहराम मच गया। बस तब से यशोधर बाबू ने यह सब कहना ही बंद कर दिया। जब से बेटा विज्ञापन कंपनी में लगा है, तब से बच्चे कहने लगे हैं, “बब्बा, हमारी समझ में यह नहीं आता कि इन सब कामों के लिए आप एक नौकर क्यों नहीं रख लेते।” कमाऊ बेटा तो नमक छिड़कते यह भी कहता है, “नौकर की तनख्वाह मैं दे दूंगा।”

यशोधर बाबू को अपने बेटे की यह बात चुभती है कि उसने अपनी नौकरी के रुपये कभी अपने पिता के हाथ पर नहीं रखे बल्कि एकाउंट ट्रांसफर द्वारा सीधा बैंक में चले जाते हैं। वे सोचते हैं कि अगर उसे ऐसा ही करना था तो क्या वह अपने पिता के साथ ज्वाइंट एकाउंट नहीं खोल सकता था। हद तो तब हो गई जब बेटे ने पिता के क्वार्टर को अपना बना लिया है।

वह अपना वेतन अपने ढंग से अपने घर पर खर्च करता है। कभी कारपेट, कभी पर्दे, कभी सोफासेट, कभी डनलप वाला डबल बेड और कभी सिंगार मेज़ घर में लाए जा रहे हैं। यह भी बेटे ने कभी नहीं कहा, “लीजिए पिता जी यह टी० वी० आपके लिए।” बल्कि यह कहता है कि ‘मेरा टी० वी० है समझे, इसे कोई छुआ न करे। घर में एक नौकर रखने की बात भी चल रही है। नौकर होगा तो इनका ही होगा और पत्नी सुनती है मगर नहीं सुनती। यही सब सोचते हुए वे खुदी हुई सड़कों और टूटे हुए क्वार्टरों के मलबे से पटे हुए रास्तों को पार करके उस क्वार्टर में पहुंचते हैं। बाहर बदरंग तख्ती में उसका नाम लिखा है-वाई० डी० पंत।

घर पहुँचते ही यशोधर बाबू को एक बार तो लगा कि वह किसी ग़लत जगह पर पहुंच गए हैं। घर के बाहर एक कार और कुछ स्कूटर, मोटर-साइकिलें खड़ी हैं। कुछ लोग विदा ले रहे हैं। बाहर बरामदे में काग़ज़ की झालरें और गुब्बारे लटक रहे थे। रंग-बिरंगी रोशनियाँ जल रही थी। फिर उन्हें अपना बेटा भूषण पहचान में आया जो अपने बॉस को विदा कर रहा था। उसकी पत्नी और बेटी भी कुछ मेमसाबों को विदा कर रही है। बेटी ने जीन और बिना बाजू का टॉप पहन रखा है। यशोधर बाबू ने उसे ऐसे कपड़ों से कई बार मना किया है, लेकिन वह इतनी जिद्दी है कि ऐसी ही वेश-भूषा को पहनती है और माँ भी उसी का ही साथ देती है।

जब कार वाले विदा हो गए तो यशोधर बाबू घर पहुंचे तो बड़े बेटे ने झिड़की-सी सुनाई-“बब्बा आप भी हद करते हैं, सिल्वर वैडिंग के दिन साढ़े आठ बजे घर पहुँचे। अभी तक मेरे बॉस आपकी राह देख रहे थे।” शर्मिली हँसी के साथ यशोधर बाबू बोले, “हम लोगों के यहाँ सिल्वर वैडिंग कब से होने लगी है।” “जब से तुम्हारा बेटा कमाने लगा है।” किसी रिश्तेदार ने कहा। यशोधर बाबू इस बात से भी खफा हैं कि घर में भूषण रिश्तेदारों के लिए व्हिस्की लाया है। जब भूषण अपने मित्रों को यशोधर बाबू का परिचय करवाता है है तो वे सभी उसे ‘मैनी हैप्पी रिटर्नज ऑफ द डे’ कहते हैं तो जवाब में यशोधर बाबू ‘बैंक्यू’ बोलते हैं। अब बच्चों ने विलायती परंपरा “केक काटने के लिए कहा। यशोधर बाबू को केक काटना बचकानी बात मालूम हुई। उन्होंने संध्या से पहले केक काटने से मना कर दिया।

और अपने कमरे में चले गए। शाम को पंद्रह मिनट वे संध्या करने में लगाते थे, परंतु आज पच्चीस मिनट लगा दिए। संध्या में बैठे-बैठे वे किशनदा के संस्कारों के बारे में सोचने लगा। पीछे आकर पत्नी झिड़कते हुए बोली, “क्या आज पूजा में ही बैठे रहोगे ?” यशोधर बाबू लाल गमछे में ही बैठक में चले गए। यह लाल गमछा पहनकर बैठक में आना बच्चों को असहज लग रहा था। खैर, बात उपहारों के पैकिट खोलने की चली तो भूषण सबसे बड़ा पैकिट खोलते हुए बोला, “इसे ले लीजिए। यह मैं आपके लिए लाया हूँ। ऊनी ड्रैसिंग गाउन है। आप सवेरे जब दूध लेने जाते हैं अब्बा, फटा फुलोवर पहन कर जाते हैं, जो बहुत बुरा लगता है।

आप इसे पहनकर ही जाया कीजिए।” थोड़ा न-नुकर करने के बाद यशोधर बाबू ने पहनते हुए कहा, “अच्छा तो यह ठहरा ड्रैसिंग गाउन।” उनकी आँखों में चमक सी आ गई। परंतु उन्हें यह बात चुभ गई कि उनका यह बेटा जो यह कह रहा है कि आप सवेरे दूध लाते समय इसे पहन लिया करें, वह यह नहीं कहता कि दूध मैं ला दिया करूँगा। इस ड्रेसिंग गाउन में यशोधर बाबू के अंगों में किशनदा उतर आए थे जिनकी मौत ‘जो हुआ होगा’ से हो गई थी।

Class 12 Hindi Aroh Chapter 18 Summary श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज

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श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 18

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ बाबा भीमराव आंबेडकर के सुप्रसिद्घ भाषण एनीहिलेशन ऑफ कास्ट का हिंदी रूपांतर है जो लेखक ने जाति-पाति तोड़क मंडल (लाहौर) के सन 1936 ई० के वार्षिक सम्मेलन अध्यक्षीय भाषण के रूप में लिखा था, लेकिन इसकी क्रांतिकारी दृष्टि के कारण उस सम्मेलन को ही स्थगित कर दिया गया था। इस पाठ में लेखक ने जाति-प्रथा को श्रम विभाजन का एक तरीका मानने की अवधारणा को निरस्त करते हुए केवल भावात्मक नहीं, बल्कि आर्थिक उत्थान, सामाजिक व राजनैतिक संघटन और जीवनयापन के समस्त भौतिक पहलओं के ठोस परिप्रेक्ष्य में जातिवाद के समूल उच्छेदन की अनिवार्यता ठहराई है।

साथ ही लेखक ने एक आदर्श समाज की कल्पना भी की है। यह विडंबना है कि हमारे समाज में आज भी जातिवाद के पोषकों की कोई कमी नहीं है। आधुनिक सभ्य समाज कार्यकशलता के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है। जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दुसरा रूप है। लेखक ने श्रम-विभाजन को सभ्य समाज – के लिए आवश्यक माना है, लेकिन यह भी बताया है कि किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन नहीं करता। उन्होंने भारत की जाति-प्रथा के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि यहाँ जाति-प्रथा श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती, बल्कि उन्हें एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच में भी बाँट देती है।

जाति-प्रथा पेशे का पूर्व निर्धारण कर देती है। इसके साथ मनुष्य को उसमें आजीवन बाँधे रखती है। आधुनिक युग में विकास के कारण भी व्यक्ति अपना पेशा नहीं बदल सकता। हिंदू धर्म में तो जाति-प्रथा किसी को भी उसके पैतृक पेशे के अलावा अन्य पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती, चाहे मनुष्य किसी कार्य में कितना ही दक्ष क्यों न हो। इसका सबसे बड़ा परिणाम यह है कि भारत में निरंतर बेरोजगारी बढ रही है। गरीबी और शोषण के साथ अरुचिपूर्ण कार्य करने की विवशता निरंतर गंभीर समस्या है।

समाज में जाति-प्रथा आर्थिक असहायता को भी पैदा करती है। यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि और आत्मशक्ति को दबा कर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़ लेती है तथा मनुष्य को निष्क्रिय बना डालती है। लेखक ने एक आदर्श समाज की कल्पना की है, जहाँ की व्यवस्था स्वतंत्रता, समता और भाईचारे पर आधारित होगी। उस समाज में इतनी गतिशीलता होगी, जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचारित होगा। समाज के सभी हितों में

सब का हिस्सा होगा। साथ ही लोगों को अपने हितों के प्रति सजग रहना पड़ेगा। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क बना रहेगा। लेखक ने । इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र बताया है। लेखक ने समाज में समता पर बल दिया है। हालाँकि राजनेता का समाज के प्रत्येक व्यक्ति की। आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर वांछित अलग-अलग व्यवहार संभव नहीं हो सकता, लेकिन मानवता के दृष्टिकोण से समाज को दो वर्गों में नहीं बाँटा जा सकता। समता काल्पनिक जगत की वस्तु के साथ व्यावहारिक और आवश्यक भी है। समता ही किसी राजनेता के व्यवहार की एकमात्र कसौटी है।

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज लेखक परिचय

जीवन-परिचय-बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर जी आधुनिक भारत के जननायक, विधिवेत्ता, धार्मिक चिंतक और महान साहित्यकार थे। वे भारतीय संविधान में निर्माता के रूप में विख्यात हैं। उनका जन्म 14 अप्रैल, सन् 1891 को मध्य प्रदेश के महु नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम श्री राम जी तथा माता का नाम भीमा बाई था। बचपन में उन्हें प्यार से भीम कहते थे। दो वर्ष की अल्पायु में ही आंबेडकर जी की माता का निधन हो गया।
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उनका लालन-पालन अपंग बुआ ने किया। इनके पिता जी फ़ौज में नौकरी करते थे। बाद में उनका तबादला सतारा में हो गया। यहीं आंबेडकर जी का बचपन व्यतीत हुआ। आंबेडकर जी ने प्रारंभिक शिक्षा सतारा में पूरी की। यहीं इन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की। सन् 1907 में दसवीं परीक्षा पास करने के बाद इनका विवाह नौ वर्षीय रमा बाई के साथ हुआ।

1908 ई० में मुंबई के सुप्रसिद्ध कॉलेज एलिफिंस्टन में दाखिला लिया। 1912 ई० में बी०ए० की परीक्षा पास की। 1913 ई० में पिता जी की इच्छा से बड़ौदा में सेकेंड लेफ्टिनेंट की नौकरी ग्रहण की। लेकिन 15 दिन बाद ही इनके पिता जी की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात इन्होंने आगे पढ़ाई करने के विचार से यह नौकरी छोड़ दी। बड़ौदा नरेश ने कुछ विद्यार्थियों को उच्चशिक्षा हेतु अमेरिका भेजने का निश्चय किया और आंबेडकर का चुनाव तीन विद्यार्थियों में हो गया। इन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय से पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्त की। 1916 ई० में ये वकालत करने के लिए लंदन चले गए। 21 अगस्त, 1917 ई० को ये छात्रवृत्ति अवधि समाप्त होने के कारण भारत वापस आ गए।

बड़ौदा नरेश ने इनको मिलिट्री सचिव पद । प्रदान किया। बाद में ये जातिगत भेद के कारण मुंबई चले गए। 1923 ई० में बंबई के उच्च न्यायालय में वकालत शुरू की। 1924 ई० तक वे विशेष वर्ग के प्रमुख नेता के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। 1924 ई० में इन्होंने ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की। 1935 ई० में आंबडेकर जी की पत्नी का निधन हो गया। 1955 ई० में गवर्नमेंट लॉ कॉलेज के प्राचार्य पद पर नियुक्त हुए। अंततः ये दिसंबर 1956 में दिल्ली में अपनी महान चेतना और साहित्य छोड़कर स्वर्ग सिधार गए। रचनाएँ-डॉ० बी० आर० आंबेडकर जी बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न व्यक्ति थे।

हिंदी में उनका संपूर्ण वाङ्मय भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय से बाबा साहेब आंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय नाम से 21 खंडों में प्रकाशित हो चुका है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैंद कास्ट्स इन इंडिया, देयर मेकेनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट, द अनटचेबल्स, हू आर दें?, हू आर दें शूद्राज, बुद्धा एंड हिज धम्मा, थॉट्स ऑन लिंग्युस्टिक स्टेट्स, द प्रोब्लम ऑफ द रूपी, द एवोलुशन ऑफ प्रोविंशियल फायनांस इन ब्रिटिश इंडिया, द राइज एंड फॉल ऑफ द हिंदू वीमैन, एनीहिलेशन ऑफ कास्ट, लेबर एंड पार्लियामेंट्री डैमोक्रेसी, बुद्धिज्म एंड कम्यूनिज्म, मूक नायक बहिष्कृत भारत, जनता (पत्रिका संपादन)। साहित्यिक विशेषताएँ-डॉ० आधुनिक भारतीय चिंतन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान के अधिकारी हैं। उनके साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(i) शोषण का विरोध-बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर को बचपन से ही शोषण का शिकार होना पड़ा, इसलिए बचपन से ही उन्होंने शोषण का विरोध करना प्रारंभ कर दिया था। वे आजीवन भारतीय समाज से शोषण को दूर करने का प्रयास करते रहे।

(ii) जाति-पाँति तथा छुआछूत का विरोध-जाति भारतीय समाज की प्रमुख सामाजिक समस्या रही है। आंबेडकर जी स्वयं दलित संप्रदाय से संबंध रखते थे। स्कूल में पढ़ते हुए वे इस के निरंतर शिकार हुए। अतः उन्होंने स्कूली जीवन में निश्चय कर लिया था कि वे आजीवन इस भयंकर समस्या का विरोध करेंगे। उन्होंने भारतीय समाज में फैली जाति-पाति तथा भेद-भाव का निरंतर विरोध किया। वकालत के बाद वे आजीवन ऐसी समस्याओं को उखाड़ने हेतु लड़ते रहे। उन्होंने जाति-विभक्त समाज की तुलना उस बहुमंजिली ऊँची इमारत से की है, जिसमें प्रवेश करने के लिए न कोई सीढ़ी है, न दरवाजा। जो जिस मंज़िल में पैदा होता । है, उसे वहीं मरना पड़ता है।

(iii) उद्धार की भावना-आंबेडकर जी के मन में समाज के उद्धार की विराट भावना थी। उन्होंने समाज में विशेष वर्ग के प्रति होने वाले अत्याचारों को बहुत नज़दीक से देखा। उनके मन में उनके प्रति गहन सहानुभूति व संवेदना थी। मुंबई में वकालत करने के बाद लगातार वे समाज के वर्ग विशेष के प्रति लड़ते रहे इसीलिए वे इनके वकील कहलाए। उन्होंने अपनी अनेक रचनाओं में उनके प्रति गहन संवेदनाएँ व्यक्त की हैं। स्कूल में पढ़ते हुए एक बार अध्यापक ने पूछा था कि “तुम पढ़-लिखकर क्या बनोगे?” तो बालक भीमराव ने जवाब दिया था, “मैं पढ़-लिखकर वकील बनूंगा। मैं नया कानून बनाऊँगा और भेद-भाव को खत्म करूंगा।” इस प्रकार डॉ. आंबेडकर ने संपूर्ण जीवन इसी संकल्प को पूर्ण करने में लगा दिया।

(iv) समतावादी भावना-डॉ० आंबेडकर एक महान चिंतक थे। उनके जीवन में महात्मा बुद्ध, संत कबीरदास और ज्योतिबा फूले विशेषतः प्रेरणास्रोत रहे हैं। बुद्ध से प्रेरणा ग्रहण कर ही उन्होंने उनके समतावादी दर्शन से आश्वस्त होकर बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इन्हीं महान चिंतकों के विचारों का प्रतिफल उनके साहित्य में भी दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने समतावादी समाज की कल्पना की है, जहाँ छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच, जाति-पाति आदि कोई संकीर्णताएँ न हों।

(v) जनकल्याण की भावना-डॉ० आंबेडकर एक महान चिंतक होने के साथ-साथ एक जननायक भी थे। वे आजीवन जनसामान्य के कल्याण हेतु संघर्ष करते रहे। यह विराट चेतना उनके साहित्य में भी प्रकट हुई है।

(vi) समाज का यथार्थ चित्रण-डॉ. आंबेडकर ने समकालीन समाज का यथार्थ चित्रण किया है। उन्होंने समाज में फैली विसंगतियों, विडंबनाओं, जाति-पाँति, छुआ-छूत, धर्म-संप्रदायवाद आदि का यथार्थ वर्णन किया है। उन्होंने अपने साहित्य में वर्ग-विशेष की दीन-हीन अवस्था का भी अंकन किया है। समाज में फैली ग़रीबी, शोषण के प्रति उन्होंने गहन संवेदना व्यक्त की है। भाषा-शैली-डॉ. आंबेडकर एक विशिष्ट साहित्यकार थे। उन्होंने अपने साहित्य लेखन हेतु हिंदी और अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया है, जिसमें तत्सम, तद्भव, उर्दू, फ़ारसी के शब्दों का प्रयोग मिलता है। इनकी भाषा अत्यंत सरल, सरस एवं भावानुकूल है।

जहाँ-जहाँ इन्होंने गहन संवेदनाओं का चित्रण किया है, वहाँ-वहाँ इनकी भाषा में गंभीरता उत्पन्न हो गई है। इन्होंने विचारात्मक, वर्णनात्मक और चित्रात्मक शैलियों का प्रयोग किया है। सामाजिक विसंगतियों का विरोध करने हेतु इन्होंने व्यंग्यात्मक शैली को भी अपनाया है। वस्तुतः बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का भारतीय साहित्य जगत में विशिष्ट स्थान है। वे हिंदी साहित्य के महान चिंतक थे।

Class 12 Hindi Aroh Chapter 17 Summary शिरीष के फूल

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शिरीष के फूल Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 17

शिरीष के फूल पाठ का सारांश

‘शिरीष के फूल’ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित प्रकृति प्रेम से परिपूर्ण निबंध है। इसमें लेखक ने आँधी, लू और गर्मी की प्रचंडता में भी अवधूत की तरह अविचल होकर कोमल फूलों का सौंदर्य बिखेर रहे शिरीष के माध्यम से मनुष्य की जीने की अजेय इच्छा। और कलह-वंद्व के बीच धैर्यपूर्वक लोक-चिंता में लीन कर्तव्यशील बने रहने को महान मानवीय मूल्य के रूप में स्थापित किया है।

लेखक जहाँ बैठकर लेख लिख रहा था उसके आगे-पीछे, दाएं-बाएँ शिरीष के फूल थे। अनेक पेड़ जेठ की जलती दोपहर में भी झूम। रहे थे। वे नीचे से ऊपर तक फूलों से लदे हुए थे। बहुत कम ऐसे पेड़ होते हैं जो प्रचंड गर्मी में भी महीनों तक फूलों से लदे रहते हैं। कनेर और अमलतास भी गर्मी में फूलते हैं लेकिन केवल पंद्रह-बीस दिन के लिए। वसंत ऋतु में पलाश का पेड़ भी केवल कुछ दिनों के लिए फूलता है पर फिर से तूंठ हो जाता है। लेखक का मानना है कि ऐसे कुछ देर फूलने वालों से तो न फूलने वाले अच्छे हैं। शिरीष का

पेड़ वसंत के आते ही फूलों से लद जाता है और आषाढ़ तक निश्चित रूप से फूलों से यूँ ही भरा रहता है। कभी-कभी तो भादों मास तक भी फूलता रहता है। भीषण गर्मी में भी शिरीष का पेड़ कालजयी अवधूत की तरह जीवन की अजेयता का मंत्र पढ़ता रहता है। शिरीष के फूल लेखक के हृदय को आनंद प्रदान करते हैं। पुराने समय में कल्याणकारी और शुभ समझे जाने वाले शिरीष के छायादार पेड़ों को लोग अपनी चारदीवारी के पास लगाना पसंद करते थे। अशोक, अरिष्ट, पुन्नाम और शिरीष के छायादार हरे-भरे पेड़ निश्चित रूप से बहुत सुंदर लगते हैं। शिरीष की डालियाँ अवश्य कुछ कमजोर होती हैं पर इतनी कमजोर नहीं होती कि उन पर झूले ही न डाले जा सकें। शिरीष के : फूल बहुत कोमल होते हैं। कालिदास का मानना है कि इसके फूल केवल भौंरों के कोमल पैरों का ही दबाव सहन कर सकते हैं। पक्षियों के भार को तो वे बिल्कुल सहन नहीं कर पाते।

इसके फूल चाहे बहुत नर्म होते हैं लेकिन इसके फल बहुत सख्त होते हैं। वे तो साल भर बीत जाने पर भी कभी-कभी पेड़ों पर लटक कर खड़खड़ाते रहते हैं। लेखक का मानना है कि वे उन नेताओं की तरह हैं जो जमाने का दुःख नहीं देखते और जब तक नये लोग उन्हें धक्का मार कर निकाल नहीं देते। लेखक को आश्चर्य होता है कि पुराने की यह अधिकारइच्छा समाप्त क्यों नहीं होती। बुढ़ापा और मृत्यु तो सभी को आना है। शिरीष के फूलों को झड़ना ही होता है पर पता नहीं वे अड़े क्यों रहते हैं ?

वे मूर्ख हैं जो सोचते हैं कि उन्हें मरना नहीं है। इस संसार में अमर होकर तो कोई नहीं आया। काल देवता की नजर से तो : कोई भी नहीं बच पाता। शिरीष का पेड़ ऐसा है जो सुख-दुःख में सरलता से हार नहीं मानता। जब धरती सूर्य की तेज गर्मी से दहक रही। होती है तब भी वह पता नहीं उससे रस प्राप्त करके किस प्रकार जीवित रहता है। किसी वनस्पति शास्त्री ने लेखक को बताया है कि वह वायुमंडल से अपना रस प्राप्त कर लेता है।

लेखक की मान्यता है कि कबीर और कालिदास भी शिरीष की तरह बेपरवाह रहे होंगे क्योंकि जो कवि अनासक्त नहीं रह सकता वह फक्कड़ नहीं बन सकता। शिरीष के फूल भी फक्कड़पन की मस्ती लेकर झूमते हैं। कालिदास के अभिज्ञानशाकुंतलम् में महाराज दुष्यंत : ने शकुंतला का एक चित्र बनाया पर उन्हें बार-बार यही लगता था कि इसमें कुछ रह गया है। कोई अधूरापन है। काफ़ी देर के बाद उन्हें समझ आया कि शकुंतला के कानों में वे शिरीष के फूल बनाना तो भूल ही गए थे।

कालिदास की तरह हिंदी के कवि सुमित्रानंदन पंत और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर भी कुछ-कुछ अनासक्त थे। शिरीष का पेड़ किसी अवधूत की तरह लेखक के हृदय में तरंगें जगाता है। वह विपरीत परिस्थितियों में भी स्थिर रह सकता है। ऐसा करना सबके लिए संभव नहीं होता। हमारे देश में महात्मा गांधी भी ऐसे ही थे। वह । भी शिरीष की तरह वायुमंडल से रस खींचकर अत्यंत कोमल और अत्यंत कठोर हो गए थे। लेखक जब कभी शिरीष को देखता है उसे ।हृदय से निकलती आवाज सुनाई देती है कि अब वह अवधूत यहाँ नहीं है।

शिरीष के फूल लेखक परिचय

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी साहित्य के प्रमुख साहित्यकार माने जाते हैं। उनका जन्म सन् 1907 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के आरत दुबे का छपरा नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी था, जो संत स्वभाव के व्यक्ति थे। द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय स्कूलों में हुई। उन्होंने काशी महाविद्यालय से शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात 1930 ई० में ज्योतिषाचार्य की उपाधि प्राप्त की। इसी वर्ष ये शांतिनिकेतन में हिंदी अध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। इसी पद पर रहते हुए इनका रवींद्रनाथ ठाकुर, क्षितिमोहन सेन, आचार्य नंदलाल बसु आदि महानुभावों से संपर्क हुआ।

Class 12 Hindi Aroh Chapter 17 Summary शिरीष के फूल

सन् 1950 में ये काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष नियुक्त किए गए। सन् 1960 में उनको पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ के हिंदी विभागाध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। तत्पश्चात यहाँ से अवकाश लेकर ये भारत सरकार की हिंदी विषयक समितियों एवं योजनाओं से जुड़े रहे। लखनऊ विश्वविद्यालय ने इन्हें डी० लिट० की मानद उपाधि से अलंकृत किया। ‘आलोक पर्व’ पर इनको साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। भारत सरकार ने इनकी साहित्य साधना को परखते हए इनको पद्मभूषण की उपाधि से सुशोभित किया। सन् 1979 में दिल्ली में ये अपना उत्कृष्ट साहित्य सौंपकर चिर निद्रा में लीन हो गए।

नार …आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी बहुमुखी प्रतिभा-संपन्न साहित्यकार थे। उन्होंने उपन्यास, निबंध, आलोचना आदि अनेक विधाओं पर लेखनी चलाकर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं
निबंध-संग्रह-अशोक के फूल, कल्पलता, विचार और वितर्क, कुटज,
विचार-प्रवाह, आलोक पर्व, प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद।
उपन्यास-बाणभट्ट की आत्मकथा, चारुचंद्रलेख, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा।
आलोचना साहित्येतिहास-हिंदी साहित्य की भूमिका, हिंदी साहित्य का आदिकाल, हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास, सूर साहित्य,कबीर, मध्यकालीन बोध का स्वरूप, नाथ संप्रदाय, कालिदास की लालित्य योजना।
ग्रंथ संपादन-संदेश-रासक, पृथ्वीराज रासो, नाथ-सिदधों की बानियाँ।
पत्रिका-संपादन-विश्वभारती, शांतिनिकेतन। आता माविका पता

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी एक श्रेष्ठ आलोचक होने के साथ-साथ प्रसिद्ध निबंधकार भी थे। उनका साहित्य कर्म भारत के सांस्कृतिक इतिहास की रचनात्मक परिणति है। वे एक श्रेष्ठ ललित निबंधकार थे। उनके साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ। निम्नलिखित हैं-

(i) देश-प्रेम की भावना-द्विवेदी जी का साहित्य देश-प्रेम की भावना से ओत-प्रोत है। उनकी मान्यता है कि जिस देश में हम पैदा होते हैं उसके प्रति प्रेम करना हमारा परम धर्म है। उस देश का कण-कण हमारा आत्मीय है। उस मिट्टी के प्रति हमारा अटूट संबंध है। इसलिए इनके साहित्य में अपने देश के प्रति मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जब तक हम अपनी आँखों से अपने देश को देख लेना नहीं सीख लेते तब तक इसके प्रति हमारे मन में सच्चा और स्थायी प्रेम उत्पन्न नहीं हो सकता। ‘मेरी जन्मभूमि’ निबंध में उन्होंने लिखा है कि “यह बात अगर छिपाई भी तो कैसे छिप सकेगी कि मैं अपनी जन्मभूमि को प्यार करता हूँ।”

(ii) प्रकृति-प्रेम का चित्रण-द्विवेदी जी के हृदय में प्रकृति के प्रति अपार प्रेम था। उनके निबंध साहित्य में उनका प्रकृति से अनन्य्रेम प्रकट होता है। उन्होंने अपने अनेक निबंधों में प्रकृति के मनोरम और भावपूर्ण चित्र अंकित किए हैं। अशोक के फूल, वसंत आ गया है, नया वर्ष आ गया, शिरीष के फूल आदि में प्रकृति के अनूठे रूप का चित्रण हुआ है। कहीं-कहीं इन्होंने प्रकृति के चेतन रूप का भी अंकन किया है। इनके अनुसार प्रकृति चेतन और भावों से भरी हुई है। इन्होंने प्रकृति के माध्यम से भारतीय
संस्कृति के भी दर्शन किए हैं।

(iii) मानवतावादी दृष्टिकोण-मानवतावादी दृष्टिकोण भारतीय संस्कृति का मूल आधार है। अनादिकाल से ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ भारतीय संस्कृति का आदर्श रहा है। द्विवेदी जी के निबंधों में मानवतावादी विचारधारा का अनूठा चित्रण मिलता है। इन्होंने अपने निबंधों में मानव कल्याण को प्रमुख स्थान दिया है। इन्होंने मानव-मात्र के कल्याण की कामना की है। इन्होंने मानव को परमात्मा की सर्वोत्तम कृति माना है। उनके अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु का प्रयोजन मानव कल्याण है। वह मनुष्य को ही साहित्य का लक्ष्य मानते हैं।

(iv) समाज का यथार्थ चित्रण-द्विवेदी जी ने समकालीन समाज का यथार्थ चित्रण किया है। उन्होंने अपने कथा-साहित्य में जाति-पाँति, मजहब के नाम पर बँटे समाज की समस्याओं का वर्णन किया है। वर्षों से पीड़ित नारी संकट को पहचानकर इन्होंने उसका समाधान खोजने का उपाय किया है। इन्होंने स्त्री को सामाजिक अन्याय का सबसे बड़ा शिकार माना है तथा उसकी पीड़ा का गहन विश्लेषण करके उसके प्रति श्रद्धा अभिव्यक्त की है।

(v) भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था-द्विवेदी जी की भारतीय संस्कृति के प्रति गहन आस्था थी। उन्होंने भारत देश को महामानव समुद्र की संज्ञा दी है। अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति की सनातन परंपरा है। इसे द्विवेदी जी ने मुक्त कंठ से स्वीकार किया है। इनके निबंधों में भारतीय संस्कृति की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण तथा भारतीय संस्कृति की महानता इनके निबंध साहित्य का आधार है। इन्हें संसार के सभी लोगों में मानव संस्कृति के दर्शन होते हैं।

(vi) प्राचीन और नवीन का अद्भुत समन्वय-द्विवेदी जी के निबंध-साहित्य में प्राचीनता और नवीनता का अद्भुत समन्वय है। . उन्होंने प्राचीन ज्ञान, जीवन दर्शन और साहित्य सिद्धांत को नवीन अनुभवों से मिलाकर प्रस्तुत किया है।

(vi) विषय की विविधता-दविवेदी जी ने अनेक विषयों को लेकर अपने निबंधों की रचना की है। उन्होंने ज्योतिष, संस्कृति, प्रकृति, नैतिक, समीक्षात्मक आदि अनेक विषयों को अपनाकर निबंधों की रचना की है।

(viii) ईश्वर में विश्वास-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ईश्वर में पूर्ण विश्वास रखते थे। वे एक आस्तिक पुरुष थे। यही भाव उनके निबंधों में भी दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने स्वीकार किया है कि ऐसी कोई परम शक्ति अवश्य है जो इसके पीछे कर्म करती है। उन्होंने माना है कि ईश्वर अनादि, अनंत, अजन्मा, निर्गुण होकर भी अपने प्रभाव को प्रकट करता है। वह इस संसार का जन्मदाता है। लेखक के शब्दों में “इस दृश्यमान सौंदर्य के उस पार इस असमान जगत के अंतराल में कोई एक शाश्वत सत्ता है जो इसे मंगल की ओर ले जाने के लिए कृत निश्चय है।

(ix) भाषा-शैली-द्विवेदी जी हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ निबंधकार थे। उनकी भाषा तत्सम-प्रधान साहित्यिक है। इन्होंने पांडित्य प्रदर्शन को कहीं भी अपने साहित्य में स्थान नहीं दिया है। इन्होंने अपनी रचनाओं में सरल, साधारण, सुबोध और सार्थक शब्दावली का प्रयोग किया है। वे कठिन को भी सरल बनाने में सिद्धहस्त थे। तत्सम शब्दावली के साथ-साथ उन्होंने तद्भव देशज, उर्दू-फ़ारसी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग किया है। हिंदी की गद्य शैली को जो रूप उन्होंने दिया वह हिंदी के लिए वह वरदान है। उन्होंने अपने निबंधों में विचारात्मक, भावात्मक, व्यंग्यात्मक आदि शैलियों को अपनाया है। वस्तुतः आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी-साहित्य के श्रेष्ठ निबंधकार थे। उनका निबंध हिंदी साहित्य में ही नहीं बल्कि समस्त साहित्य में अपूर्व स्थान है।