CBSE Sample Papers for Class 12 Hindi Paper 2

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CBSE Sample Papers for Class 12 Hindi Paper 2

Board CBSE
Class XII
Subject Hindi
Sample Paper Set Paper 2
Category CBSE Sample Papers

Students who are going to appear for CBSE Class 12 Examinations are advised to practice the CBSE sample papers given here which is designed as per the latest Syllabus and marking scheme as prescribed by the CBSE is given here. Paper 2 of Solved CBSE Sample Paper for Class 12 Hindi is given below with free PDF download solutions.

समय :3 घंटे
पूर्णांक : 100

सामान्य निर्देश

  • इस प्रश्न-पत्र के तीन खंड हैं-क, ख और ग।
  • तीनों खंडों के प्रश्नों के उत्तर देना अनिवार्य है।
  • यथासंभव प्रत्येक खंड के उत्तर क्रमशः दीजिए।

प्रश्न 1.
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए (15)

जिस प्रकार हमारे शरीर के लिए भोजन आवश्यक है, उसी प्रकार हमारे मस्तिष्क को भी भोजन की आवश्यकता होती है। मस्तिष्क का सर्वोत्तम भोजन पुस्तकें हैं। इनका अपना ही आनंद है, जो किसी अन्य वस्तु से नहीं मिल सकता। अध्ययन करते सुमय हम जीवन की चिंताओं और दुःखों को भूल जाते हैं।

अध्ययन कई प्रकार का होता है। पहला प्रकार, हल्का-फुल्का अध्ययन अर्थात् समाचार-पत्रों, पुत्र-पत्रिकाओं आदि की पढ़ाई करना होता है, जिनसे वर्तमान घटनाओं के विषय में विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है। इनके द्वारा हमें विश्व के प्रत्येक भाग की घुटनाओं और क्रियाकलापों के विषय में सब कुछ पता चलता रहता है। आज के युग में हम इस प्रकार के हल्के-फुल्के अध्ययन से अलग नहीं रह सकते। बिना समाचार-पत्रों के हम कुएँ के मेंढक के समान हो जाएँगे। इसलिए ऐसे अध्ययन को, जो आनंदमय हो और शिक्षाप्रद भी, अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसके बाद यात्रा और साहसिक कार्यों से संबद्ध पुस्तकें आती हैं। सामान्यतया व्यक्ति दैनिक जीवन की कठोर वास्तविकताओं से दूर भागना चाहता है, किंतु साहसिक कार्य करने की भावना मानव के रक्त में होती है। यात्रा और साहसिक कार्यों का वर्णन करने वाली पुस्तकें हमारे मन में भी साहस और निर्भीकता की भावना पैदा करती हैं। खाली समय को आनंद से बिताने का सबसे अच्छा साधन है, उपन्यास। शाम के समय अथवा गाड़ी में यात्रा करते समय उपन्यास पढ़ने से बेहतर कोई मनोरंजन नहीं है। कुछ समय के लिए पाठक अपने व्यक्तित्व और सत्ता को ही भूल जाता है। वह उपन्यास के किसी चरित्र के साथ एकाकार हो जाता है।

इससे उसे अपार सुख मिलता है। इनके अलावा गंभीर अध्ययन की पुस्तकें होती हैं। इनमें साहित्य, इतिहास, दर्शन आदि की पुस्तकें भी आती हैं, जो सभी काल में पढ़ी जाने योग्य कृतियाँ होती हैं। ऐसी पुस्तकें गंभीर और विचारशील व्यक्तियों के लिए होती हैं। साहित्य का विद्यार्थी सभी युगों के सर्वोत्कृष्ट विद्वानों के संपर्क में आता है और अपने चिंतन के लिए उपयोगी आहार प्राप्त करता है। वे उसे जीवन के आध्यात्मिक मूल्यों की पूरी जानकारी देते हैं। इस प्रकार वह अपने जीवन को श्रेष्ठ और मुहान् बना सकता है। उसका दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है और मानव के प्रति उसकी सहानुभूति बढ़ जाती है।

बेकन ने कहा था कि- “कुछ पुस्तकों का केवुल स्वाद चखना चाहिए, कुछ को निगल जाना चाहिए और कुछ को अच्छी प्रकार से चबाकर पुचा लेना चाहिए। किसी पुस्तक को पाठ्य-पुस्तक के रूप में पढ़ने में अनिवार्यता की भावना आ जाती है। यह अनिवार्यता उपयोगी हो सकती है, परंतु उससे रुचि का हनन हो जाता है। पुस्तकों का वास्तविक प्रेमी तो हर समय इनकी संगति में आनंद का अनुभव करता है। पढ़ने की आदत मनुष्य के सभ्य होने का चिह्न है। यह मनोरंजन का अच्छा साधन है। और खाली समय को व्यतीत करने का सबसे अच्छा उपाय है। पुस्तकों का खज़ाना किसी भी राजा के खज़ाने से बड़ा होता है। पुस्तकें कला, साहित्य, विज्ञान और ज्ञानरूपी सोने की खाने हैं।

(क) प्रस्तुत गद्यांश का सर्वाधिक उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) प्रस्तुत गद्यांश में प्रयुक्त पंक्ति “मस्तिष्क का सर्वोत्तम भोजन पुस्तकें हैं” का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ग) अध्ययन करते समय मनुष्य किस मनोदशा में पहुँच जाता है?
(घ) समाचार-पत्रों के अभाव में मनुष्य की क्या दशा हो सकती है?
(ङ) साहसिक साहित्य पढ़ने से क्या लाभ है?
(च) लेखक के अनुसार, खाली समय को आनंद से बिताने का सबसे अच्छा साधन क्या है और क्यों?
(छ) गद्यांश के केंद्रीय भाव को लगभग 20 शब्दों में लिखिए।
(ज) पाठ्य-पुस्तक पढ़ने एवं सामान्य पुस्तक पढ़ने में क्या अंतर देखा जाता है?

प्रश्न 2.
निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए (1 × 5 = 5)

टूटता है तनु तड़प
मुगुर रुक मेघ मत बरस
खड़ा है सूर्य ऊपुर
धूरा है वुज्र मेरा पाँव
कूटता है स्वर्ण घुनु से
कोई दोनों हाथ मेरे

ज़मीं पर बीज अपने
किरण चुम-चुम
घहरता स्वर्ण घने घुनु-घून
पिघुलकर रक्तु दोनों पुत्थरों से चूमता भू
मृदा से गंध उठती सोंधी-सोंधी
और उग आते सने मिट्टी सहस्रों हाथ

(क) प्रस्तुत काव्यांश में स्वर्ण घन किसका प्रतीक है? उसके द्वारा क्या किया जा रहा है?
(ख) कविता का वर्ण्य-विषय स्पष्ट कीजिए।
(ग) मिटटी से सोंधी-सोंधी गंध कब उठने लगती है?
(घ) भूमि पर किसने बीज गाड़ रखे हैं? उनके क्या परिणाम होते हैं?
(ङ) ‘पिघलकर रक्त दोनों पत्थरों से चूमता भू’ पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से किसी एक विषय पर अनुच्छेद लिखिए (5)

(क) कन्या भ्रूण हत्या
(ख) नारी समाज के सम्मुख चुनौतियाँ
(ग) जल संरक्षण
(घ) शिक्षा का अधिकार

प्रश्न 4.
मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार की ओर से उत्तर प्रदेश के शिक्षा सचिव को एक पत्र लिखिए, जिसमें राष्ट्र की भावात्मक एकता को संवर्धित करने हेतु शिक्षण संस्थानों के योगदान के संबंध में प्रत्येक राज्य में एक-एक समिति का गठन करने संबंधी निर्णय की जानकारी हो।

अथवा

आवश्यक एवं भ्रामक प्रचार करने वाले विज्ञापनों से ग्राहकों एवं उपभोक्ताओं को होने वाली परेशानी का उल्लेख करते हुए किसी समाचार-पत्र के संपादक को इस संबंध में दो सुझाव देते हुए पत्र लिखिए। (5)

प्रश्न 5.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में दीजिए (1 × 5= 5)

(क) पत्रकारीय लेखन और साहित्यिक सृजनात्मक लेखन में अंतर बताइए।
(ख) स्तंभ लेखन से क्या तात्पर्य है?
(ग) ‘इंटरनेट’ किसे कहते हैं?
(घ) संपादकीय’ किसे कहते हैं?
(ङ) ‘इन डेप्थ रिपोर्ट के विषय में बताइए।

प्रश्न 6.
‘महानगरों में अतिक्रमण की समस्या’ विषय पर एक आलेख लिखिए।

अथवा

हाल ही में पढ़ी गई किसी पुस्तक की समीक्षा लिखिए। (5)

प्रश्न 7.
‘किशोर और अपराध’ अथवा ‘मीडिया की विश्वसनीयता पर लगते प्रश्न चिह’ में से किसी एक विषय पर फ़ीचर लेखन तैयार कीजिए।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए। (2 × 4 = 8)

नभ में पाँति-बँधे बगुलों के पंख,
चुराए लिए जातीं वे मेरी आँखें।
कजरारे बादलों की छाई नभ छाया,
तैरती साँझ की सतेज श्वेत काया।

हौले हौले जाती मुझे बाँध निज माया से।
उसे कोई तृनिक रोक रखो।
वह तो चुराए लिए जाती मेरी आँखें
नभ में पाँती-बँधी बगुलों की पाँखें।

(क) आशय स्पष्ट कीजिए।
कजरारे बादलों की छाई नभ छाया,
तैरती साँझ की सतेज श्वेत काया।

(ख) कवि स्वयं को माया से बँधा क्यों महसूस करता है?
(ग) कवि किसे तनिक रोक रखने की बात करता है और क्यों?
(घ) काव्यांश का केंद्रीय भाव समझाइए।

अथवा

धूत कहौ,अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब,काहूकी जाति बिगार न सोऊ।।
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचै सौ कुहै कछु ओऊ।
माँगि के खैबो, मुसीत को सोइबो,लैबोको एकु न दैबको दोऊ।।

(क) तुलसीदास अपना जीवन-निर्वाह कैसे करना चाहते हैं?
(ख) तुलसीदास ने समाज के प्रति अपना क्षोभ किन शब्दों में व्यक्त किया है?
(ग) ‘काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब’ के द्वारा तुलसीदास समाज के लोगों से क्या कहना चाहते हैं?
(घ) तुलसीदास राम के कैसे भक्त हैं? काव्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए।

प्रश्न 9.
निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए (2 × 3= 6)

प्रातः नभ था बहुत नीला शंख जैसे
भोर का नभ।
राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)
बहुत काली सिल ज़रा से लाल केसर से
कि जैसे धुल गई हो।
स्लेट पर या लाल खड़िया चाक

मल दी हो किसी ने
नील जुल में या किसी की
गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो।
और ……………….
जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।

(क) प्रस्तुत कविता के शिल्प सौंदर्य पर प्रकाश डालिए।
(ख) कविता की भाषा पर टिप्पणी कीजिए।
(ग) “अभी गीला पड़ा है”- पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।

अथवा

मुझसे मिलने को कौन विकल?
मैं होऊँ किसके हित चंचल?
यह प्रश्न शिथिल करता पद को,

भुरता उरे में विह्वलता है।
दिनु जल्दी-जुल्दी ढलता है।

(क) प्रस्तुत काव्यांश के भाव सौंदर्य पर टिप्पणी कीजिए।
(ख) काव्यांश के शिल्प सौंदर्य को स्पष्ट कीजिए।
(ग) काव्यांश में कवि ने किस भाव को स्पर्श किया है?

प्रश्न 10.
निम्नलिखित में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर दीजिए (3 × 2= 6)

(क) ‘आत्म परिचय’ कविता में प्रयुक्त काव्य-पंक्ति “मैं और, और जग और, कहाँ का नाता’ में प्रयुक्त ‘और’ शब्द की विशेषता बताइए।
(ख) तुलसीदास की संकलित चौपाइयों के आधार पर लक्ष्मण के प्रति राम के स्नेह संबंधों पर प्रकाश डालिए।
(ग) ‘छोटा मेरा खेत’ कविता में कवि किस प्रकार की रोपाई और कटाई करने की बात करता है?

प्रश्न 11.
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए (2 × 4 = 8)

दंगल में ढोल की आवाज़ सुनते ही वह अपने भारी-भरकम शरीर का प्रदर्शन करना शुरू कर देता था। उसकी जोड़ी तो मिलती ही नहीं थी, यदि कोई उससे लड़ना भी चाहता तो राजा साहब लुट्नु को आज्ञा नहीं देते। इसलिए वह निराश होकर, लंगोट लगाकर देह में मिट्टी मल और उछालकर अपने को साँड या भैंसा साबित करता रहता था। बूढ़े राजा साहब देख-देखकर मुस्कुराते रहते। यो ही पंद्रह वर्ष बीत गए। पहलवान अजेय रहा। वह दंगल में अपने दोनों पुत्रों को लेकर उतुरता था। पहलवान की सास पहले ही मर चुकी थी, पहलवान की स्त्री भी दो पहलवानों को पैदा करके स्वर्ग सिधार गई थी। दोनों लड़के पिता की तरह गठीले और तगड़े थे। दंगल में दोनों को देखकर लोगों के मुँह से अनायास ही निकल पड़ता “वाह! बाप से भी बढ़कर निकलेंगे ये दोनों बेटे!”

(क) ढोल की आवाज़ सुनते ही लुट्टन सिंह की क्या प्रतिक्रिया होती थी?
(ख) कुश्ती के दंगल में लुट्न पहलवान निराश ही क्यों रह जाता था?
(ग) राजा साहब अपने प्रिय पहलवान लुट्टन सिंह को दंगल में कुश्ती लड़ने की आज्ञा क्यों नहीं देते थे?
(घ) राजा साहब लुट्टन सिंह की किन गतिविधियों पर मुस्कुराते रहते थे?

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से किन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर दीजिए (3 × 4 = 12)
(क) ‘बाज़ार-दर्शन’ पाठ का लेखक बाज़ार को किस रूप में देखता है? क्या आप उसके निष्कर्ष से सहमत हैं?

(ख) “चैप्लिन ने न सिर्फ फ़िल्म कला को लोकतांत्रिक बनाया, बल्कि दर्शकों की वर्ग एवं वर्ण व्यवस्था को भी तोड़ा।” इस पंक्ति में लोकतांत्रिक बनाने और वर्ण व्यवस्था तोड़ने का क्या अभिप्राय है? क्या आप इससे सहमत हैं?

(ग) ‘गगरी फूटी बैल पियासा’ इंदर सेना के इस खेल गीत में बैलों के प्यासा रहने की बात क्यों मुखरित हुई है?

(घ) सर्वग्रासी काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता है, जिसने अपने व्यवहार में जडता छोइकर नित बदल रही। स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए रखी है। ‘शिरीष के फूल’ पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।

(ङ) जाति-प्रथा को श्रम विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे डॉ. आंबेडकर के क्या तर्क हैं?

प्रश्न 13.
सिल्वर वैडिंग कहानी के आधार पर पीढ़ियों के अंतराल के कारणों पर प्रकाश डालिए। क्या इस अंतराल को कुछ पाटा जा सकता है? कैसे, स्पष्ट कीजिए।

प्रश्न 14.
(क) “सिंधु सभ्यता ताकत से शासित होने की अपेक्षा समझ से अनुशासित थी।” कैसे?
(ख) ‘डायरी के पन्ने’ के आधार पर सिद्ध कीजिए कि ऐन फ्रैंक बहुत प्रतिभाशाली तथा परिपक्व व्यक्तित्व की लड़की थी।

उत्तर

उत्तर 1.
(क) प्रस्तुत गद्यांश का सर्वाधिक उपयुक्त शीर्षक’ पुस्तकों का महत्त्व’ हो सकता है।

(ख) प्रस्तुत गद्यांश में पुस्तकों को मस्तिष्क का सर्वोत्तम भोजन मानने का अर्थ यह हुआ कि पुस्तकें पढ़ने से मस्तिष्क को एक नई ऊर्जा मिलती है, एक नई शक्ति मिलती है, जिसके कारण व्यक्ति अपने अन्य सभी कार्यों को सही ढंग से संपन्न कर पाता है। यदि शरीर को भोजन न मिले, तो शरीर शिथिल और रुग्ण हो जाता है। इसी तरह यदि मस्तिष्क को भी उचित खुराक नहीं मिलेगी, तो वह शिथिल हो जाएगा, रुग्ण हो जाएगा। यही कारण है कि कई लोग पुस्तकें पढ़ने को ही अपने मनोरंजन का साधन मानते हैं।

(ग) अध्ययन करते समय मनुष्य उच्च मनोदशा में पहुँच जाता है। जहाँ वह अपने जीवन की चिंताओं एवं दुःखों को भूल जाता है। वह आनंद की एक ऐसी दुनिया में पहुँच जाता है, जहाँ सांसारिक यथार्थ की उसे कोई सुध नहीं होती। वह अपने व्यक्तित्व एवं सत्ता को भूलकर अध्ययन की विषय-वस्तु के साथ इतना एकाकार हो जाता है कि कुछ समय के लिए उसका बाहरी दुनिया से नाता टूट जाता है। इस समूची प्रक्रिया में उसे अपार सुख प्राप्त होता है।

(घ) समाचार-पत्र के माध्यम से वर्तमान घटनाओं तथा देश-दुनिया में घटित होने वाली विभिन्न घटनाओं एवं क्रियाकलापों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। यदि समाचार-पत्रों का अध्ययन नहीं किया जाए, तो व्यक्ति कूप-मंडूक अर्थात् कुएँ का मेंढक बनकर रह जाएगा। वह अपने घर को ही दुनिया समझकर शेष दुनिया से अलग हो जाएगा। यह स्थिति उसके व्यक्तित्व एवं जीवन के विकास के लिए अत्यंत घातक सिद्ध होगी।

(ङ) साहसिक साहित्य मनुष्य में व्याप्त साहसिक कार्य करने की भावना को और अधिक उभार देता है। साहसिक पुस्तकें व्यक्ति के मन में साहस एवं निर्भीकता की भावना पैदा करती हैं। व्यक्ति एक नए उत्साह एवं प्रेरणा से भर जाता है और उच्च आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु प्रयासरत् हो जाता है।

(च) लेखक के अनुसार, खाली समय को आनंद से बिताने का सबसे अच्छा साधन उपन्यास है, क्योंकि शाम के समय या यात्रा के दौरान उपन्यास पढ़ने से बेहतर कोई मनोरंजन नहीं है। इसके पाठन से पाठक कुछ समय के लिए अपने व्यक्तित्व और सत्ता को ही भूल जाता है। वह उपन्यास के किसी चरित्र के साथ एकाकार हो जाता है, जिससे उसे अपार सुख की प्राप्ति होती है।

(छ) गद्यांश का केंद्रीय भाव पुस्तकों के महत्त्व पर प्रकाश डालना है। लेखक ने पुस्तकों की तुलना भोजन से करते हुए उसे मस्तिष्क के लिए अनिवार्य माना है। पुस्तक पढ़ने से मनुष्य को कई लाभ होते हैं। पुस्तकें मनुष्य में साहस और निर्भीकता की भावना पैदा करती हैं।

(ज) पाठ्य-पुस्तक पढ़ने एवं सामान्य पुस्तक पढ़ने में सबसे महत्त्वपूर्ण अंतर यह है कि पाठ्य-पुस्तक के साथ अनिवार्यता की भावना जुड़ जाती है, जबकि सामान्य पुस्तकों के अध्ययन में ऐसी कोई बात नहीं होती। पाठ्य-पुस्तक अनिवार्य होने के कारण उपयोगी हो सकती है, लेकिन उसके प्रति पाठक की रुचि कम हो जाती है, जबकि सामान्य पुस्तकों के अध्ययन में पाठक की स्वाभाविक रूप से अधिक रुचि बनी रहती है।

उत्तर 2.
(क) प्रस्तुत काव्यांश में स्वर्ण घन पूँजीपति वर्ग के कुचक्र अथवा षड्यंत्र का प्रतीक है, उसके द्वारा शोषित वर्ग पर अत्याचार किया जा रहा है।

(ख) प्रस्तुत कविता का वर्ण्य-विषय पूँजीपति वर्ग तथा शोषित वर्ग के बीच के संघर्ष को उजागर करना है।

(ग) पूँजीपतियों के क्रूर अत्याचारों से त्रस्त होने के कारण जब शोषित वर्ग की आँखों से रक्त मिश्रित अश्रु बहकर भूमि पर गिरते हैं, तब मिट्टी से सोंधी-सोंधी गंध उठने लगती है।

(घ) प्रस्तुत कविता का नायक शोषित वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाला एक मज़दूर है। उसी ने अपने हाथों से भूमि पर अपने बीज गाड़े हैं और उन बीजों से सहस्रों मज़दूरों अर्थात् सर्वहारा वर्ग के सदस्यों का जन्म होता है।

(ङ) प्रस्तुत काव्य पंक्ति का आशय यह है कि पूँजीपति द्वारा एक मज़दूर के साथ क्रूर व्यवहार किया जा रहा है, जिससे उसकी शुष्क आँखों से रक्त मिश्रित आँसू निकलकर भूमि पर गिरने लगते हैं।

उत्तर 3.

(क) कन्या भ्रूण हत्या

गर्भस्थ शिशु के लिंग की जाँच कराकर कन्या भ्रूण होने की स्थिति में उसकी हत्या करना कन्या भ्रूण हत्या कहलाती है। कन्या भ्रूण हत्या आज एक ऐसी अमानवीय समस्या का रूप धारण कर चुकी है, जो कई और गंभीर समस्याओं की भी जड़ है। इसके कारण महिलाओं की संख्या दिन-प्रतिदिन घट रही है। जिसके फस्वरूप वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत को लिंगानुपात प्रति हज़ार पुरुषों पर 940 महिलाएँ हैं। भारत में कन्या भ्रूण हत्या के कई कारण हैं। कन्या भ्रूण हत्या का एक बड़ा कारण दहेज प्रथा है। लोग लड़कियों को पराया धन समझने तथा उसके विवाह में दहेज देने के लिए बाध्य होने के कारण इस सामाजिक अभिशाप को बढ़ावा देने लगे हैं। निर्धनता एवं अशिक्षा महत्त्वपूर्ण कारण होते हुए भी पर्याप्त कारण नहीं हैं। आजकल शिक्षित एवं आर्थिक रूप से समृद्ध परिवारों में भी कन्या भ्रूण हत्या की घटनाएँ सामान्य रूप से देखी जा रही हैं और इसके पीछे कारण है-वंश परंपरा का निर्वाह करने संबंधी मान्यता एवं सोच या मानसिकता। पढ़े-लिखे लोगों में भी यह धारणा व्याप्त है कि वंश पुरुष से ही चलता है। समाज को अपनी यह रूढ़िवादी मानसिकता बदलनी होगी अन्यथा जब पुरुषों को जन्म देने वाली माँ ही नहीं रहेगी, तो पुरुषों का अस्तित्व कैसे बच सकेगा? कन्या भ्रूण हत्या सामाजिक एवं नैतिक दृष्टि से एक अमानवीय कृत्य है, जिसे रोका जाना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए लोगों को शिक्षित एवं जागरूक करना अनिवार्य है। कोई भी कानून तब तक कारगर नहीं हो सकता है, जब तक उसे जनसामान्य का सहयोग न प्राप्त हो। इसमें सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठनों की भी भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। कन्या भ्रूण हत्या की सामाजिक कुरीति को रोकने में मीडिया की भूमिका अत्यधिक उल्लेखनीय है। आज आवश्यकता इस बात की है कि समाज के सभी पक्ष इस संबंध में अपने दायित्व को समझें तथा इस भीषण सामाजिक कलंक को समाप्त करने में प्रत्येक नागरिक अपना सहयोग दे।

(ख) नारी समाज के सम्मुख चुनौतियाँ

नारी ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है। यह धैर्य, सहिष्णुता तथा सृष्टि की जीती-जागती प्रतिमूर्ति है। अनेक कष्टों को झेलती-सहती नारी मनुष्यता का नया इतिहास प्रतिदिन रचती है, किंतु समाज से उसे प्रेम तथा रागात्मकता के बदले केवल कष्ट ही मिलता है। नारियों की स्थिति समाज में उनकी गरिमा के अनुरूप नहीं है। वे शोषित तथा प्रताड़ित हैं। नारी-समाज के समक्ष कई चुनौतियाँ हैं, जिसके निवारण के बिना सामाजिकता के निर्माण की संकल्पना को पूरा करना संभव नहीं। भारत में नारियों की स्थिति चिंताजनक है। समाज में अंतर्निहित कुरीतियों, रूढ़ियों तथा अंध-आस्थाओं का केंद्र महिलाओं को बनाया गया है। उनकी शिक्षा तथा उन्नति की ओर कम ध्यान दिया जाता है। पितृप्रधान समाज में विभेद का आधार पारिवारिक ढाँचा ही है।

‘दहेज प्रथा’ एक ऐसी सामाजिक विकृति है, जो नारियों के समक्ष प्रमुख चुनौती के रूप में आई है। विवाह के समय लड़की के पिता अथवा परिजनों से मोटी रकम की माँग की जाती है। दहेज की माँग समाज की सबसे असंगत माँग है, जो विवाह के बाद युवती के जीवन को नारकीय बना देती है।

शिक्षा तथा पोषण के स्तर पर पुरुष तथा महिलाओं के बीच भारी अंतर है। लड़कियों को घर के काम-काज से जोड़ दिया जाता है। उनकी पढ़ाई-लिखाई यां तो कराई नहीं जाती अथवा बीच में ही छुड़ा दी जाती है। नौकरी-पेशा इत्यादि में महिलाओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले काफ़ी कम है। राजनीति के क्षेत्र में भी पुरुषों ने ही अपना वर्चस्व बना रखा है।

नारी समाज के समक्ष अनेक चुनौतियाँ हैं, लेकिन नारी ने अपनी प्रतिभा के दम पर अपनी उपस्थिति दर्ज की है। उच्चस्थ पदों पर अब उनकी नियुक्तियाँ हो रही हैं। खेल के मैदानों से लेकर राजनीति के गलियारों तक महिलाओं ने अपनी भूमिका को पूरी क्षमता के साथ निभाया है। बावजूद इसके आज भी यह आधी आबादी अपने अधिकार को प्राप्त करने में पूर्णतः सक्षम नहीं हुई है। चुनौतियाँ अत्यधिक हैं, किंतु आने वाले समय में महिलाओं की भूमिका निर्णायक होगी, ऐसी अपेक्षा की जा सकती है।

(ग) जल संरक्षण

कहा जाता है–जल ही जीवन है। जल के बिना न तो मनुष्य का जीवन संभव है और न ही वह किसी कार्य को संचालित कर सकता है। जल मानव की मूल आवश्यकता है। यूँ तो पृथ्वी के धरातल को 71% भाग जल से भरा है, किंतु इनमें से अधिकतर हिस्से का पानी खारा अथवा पीने योग्य नहीं है। पृथ्वी पर मनुष्य के लिए जितना पेयजल विद्यमान है, उसमें से अधिकतर अब प्रदूषित हो चुका है, इसके कारण ही पेयजल की समस्या उत्पन्न हो गई है।

जल-संकट के कई कारण हैं। पृथ्वी पर जल के अनेक स्रोत हैं; जैसे-वर्षा जल, नदियाँ, झील, पोखर, झरने, भूमिगत जल इत्यादि। पिछले कुछ वर्षों में सिंचाई एवं अन्य कार्यों के लिए भूमिगत जल के अत्यधिक प्रयोग के कारण भूमिगत जल के स्तर में गिरावट आई है। औद्योगीकरण के कारण नदियों का जल प्रदूषित होता जा रहा है। इन्हीं कारणों से पेयजल की समस्या उत्पन्न हो गई है।

मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति का संतुलन बिगाड़ा है और अपने लिए भी खतरे की स्थिति उत्पन्न कर ली है। अब प्रकृति का श्रेष्ठतम प्राणी होने के नाते उसका कर्तव्य बनता है कि वह जल-संकट की समस्या के समाधान के लिए जल-संरक्षण पर ज़ोर दे। जल-संकट को दूर करने के लिए जल के अनावश्यक खर्च से बचना चाहिए। जल के उपयोग को कम करने एवं उसके संरक्षण के लिए जनसंख्या पर नियंत्रण भी आवश्यक है।

वृक्ष वर्षा लाने एवं पर्यावरण में जल के संरक्षण में सहायक होते हैं। इसके अतिरिक्त वृक्ष वायुमंडल में नमी बनाए रखते हैं और तापमान की वृद्धि को भी रोकते हैं। अतः जल-संकट के समाधान के लिए वृक्षों की कटाई पर नियंत्रण कर वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। वृक्षारोपण से पर्यावरण के प्रदूषण को भी कम किया जा सकता है।

(घ) शिक्षा का अधिकार

किसी भी देश के शिक्षित नागरिक ही उस देश को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाने में सक्षम होते हैं।

शिक्षा के महत्त्व को देखते हुए भारत सरकार ने सभी के लिए शिक्षा को अनिवार्य करने के उद्देश्य से शिक्षा का अधिकार अधिनियम पारित किया। वर्ष 2002 में संविधान के 86वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 21 ए के भाग 3 के माध्यम से 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध करने का प्रावधान किया गया तथा 1 अप्रैल, 2010 से इसे पूरे देश में लागू किया और इसी के साथ भारत, शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा देने वाला विश्व का 135वाँ देश बन गया।

‘शिक्षा का अधिकार’ अपने आप में भी एक प्रगतिवादी दृष्टिकोण को दर्शाता है। इसका मुख्य उद्देश्य प्रारंभिक शिक्षा से संबंधित है। यह अधिकार 6 से 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों के लिए 8वीं कक्षा तक मुफ़्त व अनिवार्य शिक्षा को सुनिश्चित करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बच्चों से किसी प्रकार का कोई शुल्क नहीं लिया जाएगा और न ही उन्हें शुल्क अथवा किसी खर्च की वजह से आधारभूत शिक्षा से वंचित किया जाएगा। इसके तहत विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात (40 : 1) भी निश्चित किया गया है। यह अधिनियम आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के लिए गैर-सरकारी स्कूलों में 25% सीटों के आरक्षण का प्रावधान भी करता है। कुल मिलाकर यह अधिनियम शिक्षा के केंद्र में बच्चों को संलग्न करता है तथा उन्हें हर प्रकार से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम की एक अन्य तथा महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि यह माता-पिता तथा अभिभावकों को निर्देश देता है कि वह अपने बच्चों को विद्यालय में प्रवेश दिलवाएँ।

एक ओर जहाँ शिक्षा के अधिकार अधिनियम में अनेक खूबियाँ हैं, वहीं दूसरी ओर इसकी सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें 0-6 वर्ष के आयु वर्ग तथा 14-18 वर्ष के आयु वर्ग के बच्चों पर ध्यान नहीं दिया गया है। इससे कक्षा 8वीं के बाद पढ़ाई जारी रखने वाले विद्यार्थियों के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगता है।

‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम शिक्षा के क्षेत्र में सबसे महत्त्वपूर्ण तथा क्रांतिकारी कदम है। आशा है कि आने वाले समय में इस अधिनियम की सहायता से सबको समान रूप से शिक्षा प्राप्ति के अवसर उपलब्ध होंगे और सर्वसाधारण के विकास को अपेक्षित गति प्रदान की जा सकेगी।

उत्तर 4.

पत्र संख्या 53/231/2015
प्रेषक,
उपसचिव,
मानव संसाधन विकास मंत्रालय,
नई दिल्ली।

दिनांक 14 सितंबर, 20××

सेवा में,
शिक्षा सचिव,
उत्तर प्रदेश सरकार,
लखनऊ।

विषय शिक्षण संस्थानों के योगदान संबंधी समिति का गठन्।

महोदय,

उपरोक्त विषय में आपके पत्र संख्या 973/2015 शिक्षा, 12 मई, 20×× के उत्तर में मुझे यह सूचित करने का निर्देश प्राप्त हुआ है कि मंत्रालय द्वारा राष्ट्र की भावात्मक एकता को संवर्धित करने हेतु शिक्षण संस्थानों के योगदान के संबंध में प्रत्येक राज्य में एक-एक समिति गठित करने का निर्णय लिया गया है।

समिति में कम-से-कम 10 सदस्य होने चाहिए, जो शिक्षा एवं जन-सेवा से संबद्ध हों। आप अपने राज्य में ऐसी समिति का गठन कर मंत्रालय को सूचित करने की कृपा करें।

सधन्यवाद!
भवदीय
क.खे.ग.

अथवा

परीक्षा भवन
दिल्ली।

दिनांक 16 अगस्त, 20××

सेवा में,
संपादक महोदय,
दैनिक जागरण,
गाजियाबाद।

विषय भ्रामक विज्ञापन के संबंध में।

महोदय,

विनम्र निवेदन है कि आजकल भ्रामक विज्ञापनों के कारण आम जनता परेशान है। इसी विषय में मेरे विचार प्रकाशित करने की कृपा करें। नि:संदेह आज विज्ञापनों का बोलबाला है। अख़बार, टीवी, रेडियो, समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ, दीवारें, गलियाँ, बाज़ार सब विज्ञापनों से भरे पड़े हैं। विज्ञापनों की इस भीड़ में सत्य को छिपाकर असत्यता का भ्रामक प्रचार किया जाता है, जो अपने माल को जितना आकर्षक बनाकर दिखाता है, वह उतना ही अधिक बिकता है। इस तथ्य को जानने के बाद उत्पादकों का सारा ज़ोर अपने माल को उत्तम बनाने में नहीं, बल्कि उसके झूठे-सच्चे प्रचार-प्रसार में लगने लगा। यही कारण है कि आज का उपभोक्ता परेशान है। वह सोचता है कि अमुक साबुन या पाउडर से उसके दाग-धब्बे बिलकुल धुल जाएँगे, किंतु जब मोटी राशि खर्च करके उसे इस्तेमाल करता है, तो निराशा ही हाथ लगती है। वह अपनी इस परेशानी को कहीं कह भी नहीं सकता।

विज्ञापनों के माध्यम से लोगों को धोखा देना ऐसा अपराध है, जिसे आसानी से एक व्यक्ति सिद्ध नहीं कर सकता, न ही यह लड़ाई अकेले लड़ी जा सकती है। इसे रोकने के लिए या तो सरकारें अपने अधिकारियों की सहायता से अथवा सामाजिक संस्थाएँ मिलकर मोर्चा खोल सकती हैं। मेरा सरकार और स्वयंसेवी संस्थाओं से आग्रह है कि भ्रष्टाचार की इस खुली लूट को रोकने के लिए वे सार्थक प्रयास करें, ताकि आम जनता को लूटा न जा सके।

सधन्यवाद।
भवदीय
क.ख.ग.

उत्तर 5.
(क) पत्रकारीय लेखन में पत्रकार पाठकों, दर्शकों व श्रोताओं तक सूचनाएँ पहुँचाने के लिए लेखन के विभिन्न रूपों का इस्तेमाल करते हैं, जबकि साहित्यिक सृजनात्मक लेखन में चिंतन के ज़रिए नई रचना का उद्भव होता है।

(ख) महत्त्वपूर्ण लेखकों के लेखों की नियमित श्रृंखला को स्तंभ लेखन कहा जाता है। इनमें विचारपरक लेख होते हैं।

(ग) इंटरनेट आधुनिक जनसंचार का सबसे सुदृढ़, व्यापक और बहुआयामी माध्यम है। इसके द्वारा कम समय में देश-विदेश की जानकारी को प्राप्त किया जा सकता है। इसमें मुद्रण, ध्वनि, दृश्य आदि सभी संचार माध्यम मिले होते हैं।

(घ) समाचार से संबंधित तथ्य, समाचार की पृष्ठभूमि, समाचार का दूरगामी प्रभाव, घटनाओं के कारणों की व्याख्या, आलोचना, प्रशंसा, सुझाव आदि पर पत्रिका के संपादक द्वारा लिखे गए विचार ‘संपादकीय’ कहलाते हैं।

(ङ) ‘इन डेप्थ रिपोर्ट में सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध तथ्यों, सूचनाओं और आँकड़ों की छानबीन करके किसी घटना, समस्या या मुद्दे से जुड़े महत्त्वपूर्ण पहलुओं को सामने लाया जाता है।

उत्तर 6.
महानगरों में अतिक्रमण की समस्या

लोग अपने घरों, दुकानों, दफ्तरों आदि के सामने की ज़मीन पर अवैध निर्माण कर लेते हैं और उस सार्वजनिक ज़मीन को अपने घर, दुकान या दफ़्तर का स्थायी हिस्सा बना लेते हैं। इसी को अतिक्रमण कहते हैं। इस समस्या के लिए लोग व्यक्तिगत रूप से ज़िम्मेदार हैं, परंतु यह बात भी 100% सही है कि इसके कारण सबसे ज्यादा परेशानी भी उन्हीं लोगों को उठानी पड़ती है। इसका नतीजा सबके सामने है। कम व्यस्त जगहों पर भी भारी जाम का सामना करना पड़ता है। इससे उस स्थान से गुज़रने वाले सभी व्यक्तियों का बहुमूल्य समय व्यर्थ में बर्बाद होता है। प्रायः यह देखने-सुनने में आता है कि सरकारी अधिकारी अपनी जेब गरम करने के लिए इस तरह की गतिविधियों को बढ़ावा देते हैं। यदि किसी व्यक्ति को अपने फ्लैट का क्षेत्र बढ़ाना है, तो वह सरकारी अधिकारी को थोड़े पैसे देकर अपना काम करवा लेता है। अतिक्रमण से निपटने के लिए सरकार को कड़ी नज़र रखनी होगी और इस प्रक्रिया में संलग्न व्यक्तियों के प्रति कठोर कदम उठाने होंगे। साथ ही, सभी सरकारी कार्यालयों में पारदर्शिता को बढ़ावा देना होगा और भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों को दंडित करना होगा। इस काम में हम दूसरे देशों से सहायता तथा सीख ले सकते हैं।

दिल्ली जैसे महानगर पहले ही जगह की कमी से जूझ रहे हैं, उस पर अतिक्रमण ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी है। महानगरों में अतिक्रमण की समस्या आम हो गई है। सरकारी एजेंसियाँ कई बार कठोर कार्रवाई भी करती हैं, किंतु बार-बार चेतावनी जारी किए जाने के बावजूद लोगों की गतिविधियों में बदलाव नहीं आता।

अथवा

प्रसिद्ध साहित्यकार मोहन शकेश द्धारा रचित
नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन की समीक्षा

प्रसिद्ध साहित्यकार मोहन राकेश द्वारा लिखित नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ (वर्ष 1959) हिंदी नाटक-लेखन में एक क्रांतिकारी प्रयोग था, जिसे संगीत नाटक अकादमी का पुरस्कार भी मिला।

‘आषाढ़ का एक दिन’ महान् कवि कुलगुरु कालिदास को केंद्र में रखकर लिखा गया है, लेकिन वस्तुतः कालिदास इस नाटक में एक ऐसे आधुनिक कलाकार का मूर्तिमान रूप हैं, जो अपनी सृजनात्मक समस्याओं से ग्रस्त होने के साथ-साथ राज्यव्यवस्था द्वारा किए गए अपमान से भी क्षुब्ध हैं। ऊपर से देखने में किसी बीते युग का नाटक लगने पर भी उसमें आधुनिक युग के अनेक संदर्भ और ऐसे सुगठित चरित्र हैं, जिनसे सामान्य व्यक्ति का भी तादात्म्य हो सकता है।

‘आषाढ़ का एक दिन’ निःसंदेह एक उच्चस्तरीय नाटक है। इसका प्रदर्शन प्रबुद्ध दर्शकों के समक्ष ही अधिक सार्थक सिद्ध हो सकता है। इस अर्थ में भी नाटक अत्यंत सफल है कि संस्कृतनिष्ठ भाषा का निर्वाह करते हुए भी नाटककार अपनी बात को सामान्य दर्शकों तक पहुँचा सका है। भाषा बाधक न बनकर नाटक की खूबी बन गई है। आधुनिक काल की विडंबनाओं को समझने हेतु चिंतन की प्रचुर सामग्री प्राप्त करने की दृष्टि से यह नाटक अत्यंत समृद्ध है, जिसे एक बार सभी को देखना या पढ़ना चाहिए।

उत्तर 7.
किशोर और अपराध

हमारे देश में कानूनी रूप से अठारह वर्ष से अधिक आयु के व्यक्ति को वयस्क और इससे कम आयु वाले को किशोर माना गया है। हर देश में किशोरों की आयु अलग-अलग निर्धारित की गई है, हमारे देश में यह आयु 18 वर्ष तक है। बीते दिनों में कुछ संगठनों ने इसका विरोध करते हुए कहा कि किशोर आयु घटाकर 15 वर्ष कर देनी चाहिए। इस तरफ अवश्य ही ध्यान दिया जाना चाहिए कि अचानक ही किशोर आयु को तीन वर्ष घटाकर 15 वर्ष करने की माँग क्यों की गई है। यदि आप नियमित रूप से समाचार-पत्र का अध्ययन करते हैं, तो संभवतः इसका कारण समझने में आपको देर नहीं लगेगी। गंभीर श्रेणी के अंतर्गत आने वाले अपराधों में किशोरों की सक्रियता बहुत बढ़ गई है। कई बार उनके द्वारा किए गए अपराध पूरे समाज को न केवल दहलाकर रख देते हैं, बल्कि यह सोचने के लिए मजबूर कर देते हैं कि इसको कारण क्या है? आखिर क्या वजह है कि हमारे नैतिक मूल्य इतने कमजोर और प्रभावहीन हो रहे हैं? क्यों हमारे देश में बच्चे समय से पहले बड़े हो रहे हैं? निस्संदेह हमारे देश में बच्चे समय से पहले परिपक्वता की ओर बढ़ रहे हैं। इसका कारण यह है कि वैश्वीकरण के इस दौर में पुराने नैतिक मूल्य टूट रहे हैं, लेकिन उनकी जगह नए मूल्यों की संरचना नहीं हो पा रही है। कंप्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल फ़ोन आदि के आने से उनका क्रियाक्षेत्र अपेक्षाकृत बहुत बढ़ गया है, जिससे वे स्वयं ही अपने मूल्यों का निर्माण कर रहे हैं। माता-पिता इसे समझ नहीं पा रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि निम्न वर्ग के किशोरों के साथ-साथ, समाज के उच्च वर्ग के शिक्षित माता-पिता की संतानें भी गंभीर अपराधों में लिप्त पाई गई हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह समस्या किसी वर्ग विशेष से नहीं, बल्कि पूरे समाज से जुड़ी हुई है।

इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए सामाजिक स्तर पर गहन चिंतन और चर्चा की आवश्यकता है, जिससे बच्चों को कम उम्र में ही अपराधों की ओर प्रवृत्त होने से रोका जा सके।

अथवा

मीडिया की विश्वसनीयता पर लगते प्रश्न चिह्न

मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। विश्व के महान् सम्राट नेपोलियन ने कहा था

”मैं लाखों संगीनों की अपेक्षा तीन विरोधी
समाचार-पत्रों से अधिक डरता हूँ।”

अर्थ और विज्ञान के इस दौर की यह कड़वी सच्चाई है कि आज पत्रकारिता, सेवा से ज़्यादा व्यवसाय बन गई है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ग्लैमर और पीत पत्रकारिता में वृद्धि होने से मीडिया का स्तर दिनों-दिन गिरता जा रहा है। इधर कुछ वर्षों से धन देकर समाचार प्रकाशित करवाने एवं व्यावसायिक लाभ के अनुसार समाचारों को प्राथमिकता देने की घटनाओं में भी तेज़ी से वृद्धि हुई है। फलस्वरूप इनकी विश्वसनीयता पर भी प्रश्न उठने शुरू हो गए हैं। इसका कारण यह है कि भारत के अधिकतर समाचार-पत्रों एवं न्यूज़ चैनलों का स्वामित्व किसी-न-किसी स्थापित उद्यमी घराने के पास है।

जनहित एवं देशहित से अधिक इन्हें अपने उद्यमों के हित की चिंता रहती है, इसलिए ये अपने हितों को प्राथमिकता देते हैं। सरकार एवं विज्ञापनदाताओं का प्रभाव भी समाचार-पत्रों एवं टेलीविज़न प्रसारण में देखा जा सकता है। प्रायः समाचार-पत्र अपने विज्ञापनदाताओं के विरुद्ध कुछ छापने से बचते हैं। इस प्रकार की पत्रकारिता किसी भी देश के लिए घातक है। पत्रकारिता, व्यवसाय से कहीं अधिक सेवा है। व्यावसायिक प्रतिबद्धता पत्रकारिता के मूल्यों को नष्ट करती है। आज पत्रकारिता के माध्यम से आर्थिक हितों को साधने वाले लोग जिम मॉरिसन की इस पंक्ति को गलत अर्थों में प्रयोग कर रहे हैं-”जनसंचार माध्यम पर नियंत्रण करना बुद्धि पर नियंत्रण करना है।”

आज आवश्यकता है स्वतंत्रता सेनानी, कवि व पत्रकार श्री माखनलाल चतुर्वेदी की कही गई उस बात को व्यवहार में लाने की जिसे उन्होंने वर्ष 1925 में ‘कर्मवीर’ के लेख में अंतिम वाक्य के रूप में लिखा था-“प्रभु करे सेवा के इस पथ में मुझे अपने दोषों का पता रहे और आडंबर, अभिमान एवं आकर्षण मुझे पथ से भटका न सके।” सचमुच यदि मीडिया के क्षेत्र में इस आदर्श का सभी लोग अनुसरण करने लगें, तो वह दिन दूर नहीं कि इसे समाज में फिर से पहले की तरह विश्वसनीयता प्राप्त होने लगेगी।

उत्तर 8.
(क) प्रस्तुत पंक्तियों का आशय यह है कि आकाश में काले-कजरारे बादलों की घटा उमड़ी हुई है। ऐसा लगता है मानो साँझ की श्वेत काया सजीव होकर आकाश में तैर रही है। अभिप्राय यह है कि काले बादलों पर संध्याकालीन सूर्य की श्वेत किरणेंपड़ने से साँझ सजीव हो उठी है।

(ख) प्रस्तुत काव्यांश के अनुसार, आकाश में काले-काले बादलों ने अपना डेरा जमा रखा है। इन बादलों के नीचे से गुज़रते बगुलों
की श्रृंखला जादू की तरह कवि को सम्मोहित करती है। इस सौंदर्य के कारण वह स्वयं को माया से बँधा महसूस करता है।

(ग) कवि आकाश में उपस्थित मोहक दृश्य को देखकर उसके जादू से बँध गया है। बादलों के बीच गुज़रते बगुलों की श्रृंखला को । वह अपलक निहारना चाहता है। इस रमणीक सौंदर्य को वह अपनी आँखों से ओझल नहीं होने देना चाहता। इसीलिए कवि इसे तनिक रोके रखने को कहता है।

(घ) काव्यांश का केंद्रीय भाव सौंदर्य है। सौंदर्य का अपेक्षित प्रभाव उत्पन्न करने के लिए कवि ने चित्रात्मक वर्णन को महत्त्व दिया है। यह चित्र तथा कवि के मन पर पड़ने वाला प्रभाव कविता का वर्ण्य-विषय बन गया है। वस्तुगत तथा आत्मगत प्रवृत्तियों के संयोग पाठक को सौंदर्य के स्वाभाविक संसार में प्रवेश दिलाते हैं।

अथवा

(क) तुलसीदास लिखते हैं-‘मॉगि कै खैबो, मसीत को सोइबो’ अर्थात् वे भिक्षावृत्ति से और मस्जिद में सोकर अपना जीवन-निर्वाह करना चाहते हैं। उन्हें लोगों के कुछ भी कहने की परवाह नहीं है, उन्हें किसी से कुछ भी लेना-देना नहीं। वे तो बस जगत पिता श्रीराम के दास हैं।

(ख) तुलसीदास ने समाज के प्रति अपना क्षोभ व्यक्त करते हुए कहा है कि चाहे कोई मुझे धूर्त कहे, योगी कहे, राजपूत कहे या जुलाहा कहे अर्थात् किसी भी वर्ग या जाति से जोड़कर देखे, मुझे इसकी कोई चिंता नहीं है, क्योंकि न तो मुझे। किसी की बेटी से अपने बेटे का ब्याह करना है और न ही दूसरों की जाति-बिरादरी में शामिल होकर उसे बिगाड़ना है। वास्तव में, तुलसीदास यहाँ जाति-पॉति पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के पोषकों पर गहरा व्यंग्य करते हैं।

(ग) प्रस्तुत कथन के माध्यम से तुलसीदास यह बताना चाहते हैं कि उन्हें न तो किसी की बेटी से अपने बेटे का ब्याह रचाना है। और न किसी की जाति-बिरादरी में शामिल होकर उसे बिगाड़ना है; वे संत हैं, जिसकी कोई समाज निर्मित जाति नहीं होती। उनकी जाति एवं धर्म केवल मनुष्य एवं मनुष्यता है। इस प्रकार, जाति की शुद्धता की बात करने वाले परंपरा के ठेकेदारों पर जिन्होंने समाज को विभिन्न संकीर्ण आधारों पर विभाजित कर रखा है, उनपर तीखी टिप्पणी की है।

(घ) काव्यांश के आधार पर कहा जा सकता है कि तुलसीदास स्वयं को राम का गुलाम अर्थात् दास बताते हैं। वे राम के अनन्य भक्त हैं। वे कहते हैं कि मेरी प्रसिद्धि राम के दास के रूप में ही इस संसार में है। मुझे किसी और से कोई लेना-देना नहीं है, जिसे जो समझ में आए, वह मेरे विषय में कहे। वस्तुतः यह राम के प्रति तुलसीदास जी की अनन्य भक्ति ही है।

उत्तर 9.
(क) शिल्प के स्तर पर कविता विशिष्ट प्रवृत्ति को दर्शाती है। कवि शिल्पों के प्रयोग में सचेत है। नए बिंब, नवीन प्रतीक तथा नए उपमानों के माध्यम से कविता नई चमक के साथ सामने आई है। ‘उषा’ कविता में प्रकृति के परिवेश में होने वाला परिवर्तन मानवीय जीवन का चित्र बनकर सामने आया है। शमशेर ने प्रकृति की गति को बाँधने के लिए अपनी बिंबधर्मिता का कुशल प्रयोग किया है। कवि का चित्रकार मन भी मोम की भॉति पिघलकर शब्दों में फैल गया है।

(ख) कविता की भाषा सहज है, किंतु कविता के अंतर्गत विस्तृत बिंब का सृजन करने के कारण भाषा ध्वन्यात्मक एवं बिंबात्मक बन गई है। देशज तथा तत्सम शब्दों के सुंदर समन्वय के साथ कवि ने कविता को अद्भुत गति प्रदान करने में सफलता पाई है।

(ग) “अभी गीला पड़ा है” पंक्ति का भाव यह है कि सूर्योदय से पहले के आकाश में नमी होती है। ऐसा आभास होता है कि शाम को भोजन बनाने के बाद किसी गृहिणी ने अपने चूल्हे को राख से लीपा हो, जो अब तक गीला है। अत: भाव यह है कि भोर के नभ में सजलता का गुण विद्यमान है।

अथवा

(क) प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने समय व्यतीत होने के क्रम में अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की आतुरता का चित्रण किया है। प्रियजन से मिलने की आतुरता समय बीतने के साथ प्राणियों की मनोदशा एवं उसकी गतिविधियों को प्रभावित करती है। इसी की अत्यंत सहज एवं मार्मिक अभिव्यक्ति इन पंक्तियों में हुई है।

(ख) काव्यांश की भाषा सहज, सरस एवं प्रभावोत्पादक है। जल्दी-जल्दी’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार ‘कौन, किसके’ आदि के प्रयोग के कारण प्रश्नालंकार विद्यमान है। ‘जल्दी-जल्दी’ में ‘ई’ वर्ण की निरंतर आवृत्ति से स्वर-मैत्री उत्पन्न हुई है। काव्यांश में गेयता का गुण है।

(ग) प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने अपनी निराशा, उदासी एवं व्यर्थता-बोध के भाव संबंधी मर्म को सफलतापूर्वक स्पर्श किया है। चिड़ियों के अपने बच्चों की चिंता करने में वात्सल्य भाव दृष्टिगोचर होता है। इन पंक्तियों का सहृदय पाठक पर अत्यंत जीवंत प्रभाव पड़ता है।

उत्तर 10.
(क) प्रस्तुत काव्य-पंक्ति में कवि ने’और’ शब्द का प्रयोग तीन अर्थों में किया है। इस शब्द की अपनी ही विशेषता है, जिसे विशेषण के रूप में प्रयुक्त किया गया है। मैं और’ का अर्थ है कि मेरा अस्तित्व बिलकुल अलग है। मैं तो कोई अन्य ही अर्थात् विशेष व्यक्ति हूँ। ‘जग और’ से आशय है कि यह जगत भी कुछ अलग ही है। इन दोनों के बीच प्रयुक्त तीसरे ‘और’ का अर्थ है-के साथ अर्थात् यह दोनों को संयुक्त करने वाला पद है। कवि कहता है कि जब मैं और मेरा अस्तित्व बिलकुल अलग है, यह जगत भी बिलकुल अलग है, तो मेरा इस जगत के साथ संबंध कैसे स्थापित हो सकता है? यहाँ यमक अलंकार का चमत्कार प्रदर्शित हुआ है। कवि ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा है कि इस संसार से आसक्ति की बात तो सोची भी नहीं जा सकती है।

(ख) पुरुषोत्तम श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण से अत्यधिक स्नेह करते थे। उन्हें मूर्च्छित देखकर वे विलाप करने लगते हैं। वे लक्ष्मण के वन आने का कारण स्वयं को मानते हुए स्वयं को ही इस दुर्घटना के लिए दोषी मानते हैं। वे नारी-हानि को भ्रातृ-हानि से कमतर मानते हैं। लक्ष्मण को बिछड़ते देखकर राम आत्मग्लानि एवं शोक से भर जाते हैं। वे स्वयं को शक्तिहीन-सा महसूस कर रहे हैं। इन सभी अवतरणों के आधार पर स्पष्टतः कहा जा सकता है कि राम और लक्ष्मण के स्नेह संबंध अद्वितीय हैं।

(ग) कवि रचना एवं साहित्य के संदर्भ में ‘क्षण की रोपाई’ तथा ‘अनंतता की कटाई’ की बात करता है। जिस प्रकार कृषि में फ़सल की रोपाई और कटाई की जाती है, उसी प्रकार साहित्य क्षेत्र में कवि किसी क्षण विशेष में उपजे मन के भावों को आधार ग्रहण करके अपनी रचना को मूर्त रूप देता है। एक क्षण का वह समय कालांतर में कालजयी साहित्यिक कृति का रूप ग्रहण करती है, जो अपने प्रभाव के स्तर पर काल की सीमाओं का अतिक्रमण कर निरंतर जीवन-रस प्रदान करती रहती है।

उत्तर 11.
(क) ढोल की आवाज़ लुट्टन सिंह के शरीर में बिजली जैसी सिहरन दौड़ा देती थी। उसका मन ढोल की ताल पर कुश्ती का प्रदर्शन करने के लिए उतावला हो जाता था। वह कुश्ती के लिए मचलने लगता था।

(ख) कुश्ती के दंगल में लुट्टन सिंह चाहता था कि वह कुश्ती लड़े तथा अन्य पहलवानों को चित्त कर दे, परंतु राजा साहब इसकी आज्ञा नहीं देते थे, इसलिए वह निराश ही रह जाता था।

(ग) राजा साहब जानते थे कि लुट्टन सिंह का सामना करने की शक्ति किसी भी पहलवान में नहीं है, बावजूद इसके वह उसे कुश्ती लड़ने की आज्ञा इसलिए नहीं देते थे, क्योंकि वह राज पहलवान था। यदि किसी भी कारण वह पराजित हो जाता, तो राजा साहब को शर्मिंदा होना पड़ता और पहलवान लुट्टन को भी हमेशा ग्लानि रहती।

(घ) राजा साहब जब लुट्टन सिंह को कुश्ती लड़ने की आज्ञा नहीं देते थे, तो वह निराश होकर कुश्ती के लिए लंगोट पहनकर मैदान में मिट्टी से ही कुश्ती लड़ता रहता। मिट्टी को कभी वह अपने शरीर पर मलता, तो कभी उछल-उछलकर उसके साथ खेलता रहता। इन्हीं सब गतिविधियों को देखकर राजा साहब मुस्कुराते रहते।

उत्तर 12.

(क) लेखक बाज़ार को एक जादू के रूप से देखता है। वह कहता है कि जिस प्रकार चुंबक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू का असर तब भरपूर मात्रा में होता है, जब व्यक्ति की जेब भरी हो और मन खाली हो या फिर जेब खाली हो और मन भरा न हो। यदि मन खाली है, तो अनेक प्रकार की वस्तुएँ व्यक्ति को आमंत्रित करती रहेंगी। यह सब बाज़ार के जादू का ही असर है। लेखक ने जादू की जकड़ से बचने के लिए बिलकुल सही रास्ता बताया है कि व्यक्ति को बाज़ार तभी जाना चाहिए, जब उसे अपनी आवश्यकता के बारे में पूर्ण जानकारी हो, बिलकुल भगत जी की तरह, क्योंकि अपनी आवश्यकता का ज्ञान होने पर ही हम बाज़ार को तथा बाज़ार हमें, दोनों एक-दूसरे को सच्चा लाभ दे पाएँगे।

(ख) फ़िल्म कला को लोकतांत्रिक बनाने का अर्थ है-फ़िल्म सामान्य लोगों के लिए उपयोगी बनाना यानी सामान्य लोगों की अनुभूति को प्रकट करना अर्थात् किसी विशेष वर्ग या वर्ण का प्रतिनिधित्व न करना| लोकतांत्रिक कला अधिक-से-अधिक जनसामान्य को प्रभावित एवं प्रसन्न करती है। चार्ली ने ऐसा ही किया। चार्ली चैप्लिन की फ़िल्में किसी भी वर्ग या वर्ण के लोगों को समान रूप से प्रभावित करती थीं, जबकि अन्य फ़िल्मों के विशेष दर्शक वर्ग हुआ करते हैं। चार्ली एक ऐसे कलाकार थे, जो वर्ग एवं वर्ण की सीमा को तोड़कर अपनी फ़िल्मों में अभिनय करते थे। यहाँ तक कि उनकी फ़िल्में देश की सीमा को भी लॉघ गईं। उन्होंने सिर्फ मानव जाति की भावनाओं को तरजीह दी तथा करुण एवं हास्य का सम्मिश्रण करके मूल मानवीय भावनाओं को जीवंत बनाए रखा।

(ग) वर्षा, पानी, बैल, भोजन सबका पारस्परिक संबंध है। वर्षा के रूप में जब पानी मिलता है, तो बैल पानी पीकर खेतों पर जाते हैं। उसके बाद ही फ़सल आने पर सभी को भोजन मिलता है। ग्रीष्म ऋतु की असहनीय लू में प्रत्येक जीव-जंतु और पेड़-पौधे व्याकुल हो जाते हैं। बैल भी प्यासे ही रह जाते हैं और बैलों के काम नहीं करने के कारण ही खेतों में अन्न नहीं उगता है। इसी कारण वर्षा के अभाव में सारी खेती के नष्ट होने का खतरा पैदा हो जाता है। इसलिए इंदर सेना के इस खेल गीत में बैलों की प्यास की बात मुखरित हुई है। लोग इंदर को भेंट करने के लिए पानी देंगे, तभी इंदर भगवान प्रसन्न होंगे। इंदर भगवान के प्रसन्न होने पर ही बैलों की प्यास बुझेगी और सुचारु ढंग से खेती हो पाएगी।

(घ) परिवर्तन संसार का नियम है। मनुष्य को समयानुसार परिवर्तन करते रहना चाहिए। मृत्यु तो अटल है, जो लोग समय के साथ चलते हैं, नए को स्वीकार करते हुए अपने जीवन में आगे बढ़ते हैं, उनको समाज भी अपना मानने लगता है और वे कुछ समय के लिए काल के कोड़ों से भी बचे रहते हैं। इसके विपरीत, जो एक ही स्थान पर जमे रहते हैं, उनको समाज भी पुराना, जीर्ण-क्षीण समझकर अस्वीकार कर देता है। जरा (वृद्धावस्था) और मृत्यु अतिपरिचित और अतिप्रामाणिक सत्य है, जिसे सभी को स्वीकार करते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिए।

(ङ) जाति-प्रथा को श्रम विभाजन का ही एक रूप मानने से डॉ. आंबेडकर इनकार करते हैं। उनके अनुसार यह विभाजन अस्वाभाविक है, क्योंकि

  • यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है।
  • इसमें व्यक्ति की क्षमता की उपेक्षा की जाती है।
  • यह केवल माता-पिता के सामाजिक स्तर का ध्यान रखती है।
  • व्यक्ति के जन्म से पहले ही श्रम विभाजन निर्धारित हो जाना अनुचित है।
  • जाति-प्रथा व्यक्ति को जीवनभर के लिए एक ही व्यवसाय से बाँध देती है। व्यवसाय उपयुक्त हो या अनुपयुक्त, व्यक्ति को उसे अपनाने के लिए बाध्य किया जाता है।
  • विपरीत परिस्थितियों में भी पेशा बदलने की अनुमति नहीं दी जाती, भले ही किसी को भूखा क्यों न मरना पड़े?

उत्तर 13.
‘सिल्वर वैडिंग’ कहानी में पीढ़ियों के अंतराल की समस्या को समाज के सामने रखा गया है। अंतराल का कारण है कि पुरानी पीढ़ी नए बदलाव को समझना ही नहीं चाहती, स्वीकार करना तो दूर की बात है। पंतजी यानी यशोधर बाबू भी इस बात को मानते हैं कि उनके बच्चे, दुनियादारी उनसे ज़्यादा अच्छी तरह समझते हैं। फिर भी वे पुराने विचारों में रहना पसंद करते हैं। रहन-सहन, पहनावा, आपसी रिश्तेदारी सभी यशोधर जी को अपने पुराने विचारों या सोच के कारण ‘समहाउ इंप्रापर’ ही लगते हैं।

इस पूरी कहानी में नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के अंतराल को दर्शाया गया है। इस अंतर को कम करने का एक ही तरीका हैबदलाव। पुरानी पीढ़ी के लोगों को समझना चाहिए कि नई पीढ़ी बदलाव चाहती है। वह संसार में अपने नियमों के साथ जीना चाहती है और नई पीढ़ी को भी पुराने विचारों को उसी सीमा तक बदलना चाहिए, जिससे पुरानी पीढ़ी दुःखी न हो और नई पीढ़ी को उससे लाभ मिले। समय के साथ सामंजस्य करके ही हम स्वयं को तथा अन्यों को प्रसन्न रख सकते हैं।

उत्तर 14.
(क) जब सिंधु सभ्यता की खुदाई हुई, तब वहाँ मिट्टी के बर्तन, सिक्के, मूर्तियाँ, पत्थर और मिट्टी के उपकरण मिले थे। इन चीज़ों का मिलना यह बताता है कि उस समय लोग इन चीज़ों को प्रयोग में लाते थे। सड़कों, नालियों तथा गलियों को साफ़-सुथरा रखना उनकी समझदारी को दर्शाता है। मुअनजोदड़ो के अजायबघर में प्रदर्शित वस्तुओं में भी कलाकृतियाँ हैं, औजार हैं, किंतु कोई हथियार नहीं है। समूची सिंधु सभ्यता में कहीं भी हथियार के दर्शन नहीं होते, जो स्पष्ट संकेत करता है कि शक्ति से इस सभ्यता का संबंध नहीं के बराबर रहा होगा। इसके अतिरिक्त, कहीं भी न तो राजा या सेनापति का कोई चित्र मिलता है और न ही किसी की समाधि। इन सबसे स्पष्ट होता है कि इस सभ्यता में सत्ता का कोई केंद्र नहीं था। राजा या सेना का अस्तित्व अत्यंत संदिग्ध है। अतः यहाँ आत्म अनुशासित राजनीतिक एवं सामाजिक व्यवस्था की संभावना अधिक प्रबल लगती है।

(ख) ऐन फ्रैंक की प्रतिभा एवं धैर्य का परिचय हमें उसकी डायरी से ही मिलता है। उसमें किशोरावस्था का अक्खड़पन कम तथा सहज शालीनता अधिक है, जबकि उसकी अवस्था में अन्य कोई लड़की अपनी विचलित मानसिकता एवं बेचैनी का आभास करा देती। ऐन ने अपने स्वभाव एवं अवस्था पर नियंत्रण पा लिया था। वह एक सकारात्मक, परिपक्व एवं सुव्यवस्थित विचारों वाली लड़की थी, जिसमें अद्भुत सहनशक्ति थी। बुरी लगने वाली अनेक बातों को भी वह शालीन चुप्पी के साथ बड़ों का सम्मान करने के लिए सहन कर जाती थी। पीटर के प्रति अपने अंतरंग भावों को भी वह सहेजकर केवल डायरी में ही व्यक्त करती है। अपनी भावनाओं को वह किशोरावस्था में भी जिस परिपक्वता के साथ नियंत्रित करती है, वह वास्तव में सराहनीय है। इसी परिपक्व सोच का परिणाम उसके डायरी लेखन में सामने आता है। यदि ऐन में सधी हुई परिपक्वता न होती, तो मानव-समाज को तत्कालीन युद्धकाल की यथार्थ दास्तान पढ़ने को प्राप्त नहीं होती।

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